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________________ ७८ नियुक्तिपंचक बंधन तथा बंधनफल-इनको अच्छी तरह जानना ज्ञानभावना है। वाचना, पृच्छना आदि पांच प्रकार के स्वाध्याय में उपयुक्त रहना तथा ज्ञान-प्राप्ति के लिए नित्य गुरुकुलवास में रहना भी ज्ञानभावना है। साधक को 'मुझे विशिष्ट ज्ञान होगा' यह भावना प्रतिपल करते रहना चाहिए। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के अनुसार ज्ञान का नित्य अभ्यास, ज्ञान-प्राप्ति में चित्त की स्थिरता, सूत्र और अर्थ की विशुद्धि तथा ज्ञान के माहात्म्य से परमार्थ को जान लेना ज्ञानभावना है। इससे व्यक्ति का चित्त स्थिर हो जाता है और सहज ही ध्यान में प्रवेश होने लगता है। चारित्रभावना अहिंसा आदि पांच महाव्रतों का निरतिचार पालन करना चारित्र भावना है। नियुक्तिकार के अनुसार वैराग्य, अप्रमाद और एकत्व भावनाएं भी चारित्र भावना की अनुगत हैं। ध्यान शतक के अनुसार नए कर्मों का अग्रहण, पुराने बंधे हुए कर्मों का निर्जरण तथा शुभ कर्मों का ग्रहण चारित्र भावना है। इस भावना से बिना प्रयत्न किए भी ध्यानावस्था प्राप्त होने लगती है। तपोभावना विविध प्रकार के तप-अनुष्ठान में संलग्न रहना तपोभावना है। नियुक्तिकार ने तपोभावना को आत्मचिंतन के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया है। उनके अनुसार मेरा दिन तपस्या से अवंध्य कैसे हो? मैं कौन सी तपस्या करने में समर्थ हूं? मै किस द्रव्य के योग से कौन सा तप कर सकता हूं? मैं कैसे क्षेत्र और काल में तथा किस अवस्था में तप कर सकता हूं? इस चिंतन से स्वयं को जोड़ने वाला तपोभावना से भावित होता है। वैराग्य भावना अनित्य आदि बारह भावनाओं से स्वयं को भावित करना वैराग्य भावना है। ध्यान शतक के अनुसार जो जगत् के स्वभाव को जानता है, निस्संग (अनासक्त) है, अभय है, आशंसा से मुक्त है, वह वैराग्य भावना से भावित चित्त वाला होता है। ध्यान में सहज ही उसकी निश्छलता सध जाती है। प्रणिधि/प्रणिधान दशवकालिकनियुक्ति के आठवें अध्ययन में वर्णित प्रणिधि का वर्णन आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। प्रणिधि का एक अर्थ खजाना होता है लेकिन साधना की दृष्टि से प्रणिधि या प्रणिधान शब्द एकाग्रता या समाधि का वाचक है। साधना के क्षेत्र में एकाग्रता प्रथम सोपान है, जिसके माध्यम से साधक अपने लक्ष्य की ओर गति करता है। बिना प्रणिधान के मन, वचन और काया को समाहित नर्ह किया जा सकता। नियुक्तिकार ने भाव प्रणिधि के दो भेद किए हैं-इंद्रिय-प्रणिधि औ नोइंद्रिय-प्रणिधि। शब्द, रस, रूप, गंध और स्पर्श में राग- द्वेष नहीं करना प्रशस्त इंद्रिय-प्रणिधि है। इसके विपरी १. आनि ३५७-५९। २. आवहाटी २ पृ. ६७ गा. ३१ । ३. आनि ३६०, ३६१।। ४. आवहाटी २ पृ. ६८ गा. ३३ । ५. आनि ३६२। ६. आनि ३६३ । ७. आवहाटी २ पृ. ६८ गा. ३४ ८. दशनि २७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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