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६६
३३७.
३३८.
३३९.
३४०.
३४१.
व्रती खलु दुविहा, कम्मरती चेव 'नो य कम्मरतो" । कम्मरतिवेदणी', नोकम्मरती तु सद्दादी ||
सद्द - रस- रूव-गंधा, फासा रइकारगाणि दव्वाणि । दव्वरती भावरती, उदए एमेव अरती वि ॥
उदएण समुप्पज्जइ, परीसहाणं तु सा भवे अरई । निव्वुइसुहं तु काउं, सम्म अहियासणिज्जा उ' ।।
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वक्कं तु पुव्वभणियं, धम्मे रइकारगाणि वक्काणि । 'जेण इहं चूडाए तेण निमित्तेण रइवक्का' ।।
जध नाम आतुरसिह * सीवणछेज्जेसु जंतणमपत्थकुच्छा मदोस विरती
१. नोकम्म ० ( अ ) ।
२. ० रईवेयणियं ( अ ) ।
हरिभद्र टीका की मुद्रित पुस्तक में ३३७३८ दोनों गाथाएं नियुक्तिगाथा के क्रम में नहीं हैं । किन्तु टीकाकार हरिभद्र की व्याख्या से प्रतीत होता है कि उन्होंने इन्हीं दोनों गाथाओं की व्याख्या की है (हाटी प. २७० ) । अगस्त्य सिंह तथा जिनदास ने भी इन गाथाओं को आधार मानकर व्याख्या की है। पुण्यविजयजी ने भी इन्हीं दो गाथाओं को स्वीकृत किया है। कुछ आदर्शों में ये गाथाएं नहीं मिलती। टीका में इन दो गाथाओं के स्थान पर यह गाथा मिलती है-
दवे हा उम्मे
नोकम्मरई य सदव्वाई । भावरई तस्सेव उ,
उदए एमेव अरई वि ॥
(हाटी प २७० ) किसी किसी प्रति में इस गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार हैदव्वेयरवेयणियं णोकम्मे सद्दमाइ रइजणगा ।
४.
५.
६.
७.
कीरमाणेसु । हितकरी तु ॥
३.
यह गाथा केवल 'ब' प्रति में प्राप्त है। किंतु गद्य में भावार्थ दोनों चूर्णियों में है । विषयवस्तु की दृष्टि से यह अप्रासंगिक नहीं लगती तथा हस्तआदर्श में भी मिलती है । इसलिए इसको नियुक्तिगाथा के क्रम में जोड़ा है । जेणमिमीए तेणं रइवक्केसा हवइ चूडा (हा ) । यह गाथा दोनों चूर्णियों में अनुपलब्ध है किन्तु यह टीका तथा दोनों हस्त आदर्शों में मिलती है । यह निर्युक्तिगाथा प्रतीत होती है । संभव है चूर्णिकार ने सरल समझकर इसकी व्याख्या न की हो। सुनि पुण्यविजयजी ने इसे नियुक्तिगाथा के क्रम में नहीं रखा है । आउरिस्सह (रा) ।
८.
यह गाथा दोनों चूर्णियों में तथा 'अ' प्रति में निर्दिष्ट नहीं है । गा. ३३७-३८ का भाव ही इस गाथा में है अतः टीका में उपलब्ध होने पर भी इसको निर्युक्ति गाथा में सम्मिलित नहीं किया है ।
निर्यक्तिपंचक
सिव्वण ० ( अचू ) ।
० मवच्छ० (अचू ) ।
० विरुती ( अचू ) ।
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