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________________ निर्युक्तिपंचक आगम- साहित्य में दिशा के बारे में बहुत विमर्श हुआ है । दिशाएं व्यक्ति के मानस को प्रभावित करती हैं इसीलिए बैठने, सोने या शुभकार्य करने में दिशा का ध्यान रखने की बात अनेक स्थानों पर निर्दिष्ट है। भगवान् महावीर ने उत्तरपुरत्थिम - उत्तर पूर्व अर्थात् ईशाण कोण को सर्वश्रेष्ठ दिशा माना है तथा मांगलिक एवं शुभ कार्यों को इसी दिशा में सम्पन्न करने का निर्देश दिया है। ठाणं सूत्र में दिशा के तीन भेद मिलते हैं - १. ऊर्ध्व दिशा २. अध: दिशा ३. तिर्यक् दिशा । वहां उत्तर और पूर्व दिशा में प्रव्रज्या देने, आहार- मंडली में सम्मिलित करने, स्वाध्याय करने, आलोचना-प्रतिक्रमण करने तथा तप रूप प्रायश्चित्त करने का निर्देश है । आचारांगनिर्युक्ति में दिशा के बारे में बहुत विस्तृत एवं व्यवस्थित विवेचन मिलता है। नियुक्तिकार ने दिशा के सात निक्षेप किए हैं – १. नाम दिशा २. स्थापना दिशा ३. द्रव्य दिशा ४ क्षेत्र दिशा ५ ताप दिशा ६ प्रज्ञापक दिशा ७ भाव दिशा । द्रव्य दिशा १०० दिशा जो दश दिशाओं के उत्थान का कारण है, वह द्रव्य दिशा है । यह जघन्यत: तेरह प्रदेशी और तेरह आकाश प्रदेशों में अवगाढ़ तथा उत्कृष्टत: अनंत प्रदेशी और असंख्यात आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होती है । तेरह प्रदेशों की स्थापना का क्रम इस प्रकार रहता है-मध्य में एक और चार विदिशाओं में एक-एक पांच प्रदेशावगाढ़ पांच परमाणु तथा चार दिशाओं में आयत रूप में स्थित दो-दो परमाणुइस प्रकार जघन्यत: तेरह आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ तेरह प्रदेशी स्कन्ध दश दिशाओं के उत्थान के हेतु हैं, यही द्रव्य दिशा कहलाती है। तेरह प्रदेशों की स्थापना इस प्रकार है ० ● ० ० O O ० Jain Education International 1° ० ० O ० १. ठाणं ३/३२० । २. ठाणं २/१६७, १६८ । ३. आनि ४० । ४. आनि ४१, विभा २६९८ महेटी पृ. ५३६; उक्कोसमणंतपएसियं च सा होइ दव्वदिसा । ० ० O For Private & Personal Use Only ० o ० ० ० ० ० कुछ आचार्य दश परमाणुओं को दश दिशाओं में स्थापित कर उन्हें दिशाओं के उत्थान का हेतु मानते थे लेकिन टीकाकार शीलांक ने इसका खंडन किया है क्योंकि दश दिशाओं का आकार चतुरस्र होता है और वह दश परमाणुओं से संभव नहीं है अत: तेरह परमाणु ही दश दिशाओं के उत्थान के कारण हैं, न्यून या अधिक नहीं ।" विशेषावश्यक भाष्य में अन्य मतों का उल्लेख भी मिलता है । " क्षेत्रदिशा Q तिर्यक् लोक के मध्य में मेरु के मध्यभाग में आठ रुचक प्रदेश हैं । ये रुचक प्रदेश चार ऊपर तथा चार नीचे गोस्तन आकार वाले हैं। ये रुचक प्रदेश दिशाओं तथा विदिशाओं के उत्पत्ति-स्थल हैं । ७ e ५. आटी पृ. ९, न पुन र्दशप्रदेशिकं यत् कैश्चिदुक्तमिति, प्रदेशाः परमाणवस्तै र्निष्पादितं कार्यद्रव्यं तावत्स्वेव क्षेत्रप्रदेशेष्ववगाढं जघन्यं द्रव्यमाश्रित्य दशदिग्विभागपरिकल्पनातो द्रव्यदिगियमिति । ६. विभा २६९९, २७०० टी पृ. ५३६ - ५३८ । ७. ठाणं १०/३०, आनि ४२ टी. पृ. ९ । www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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