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________________ सूत्रकृताग नियुक्ति ३६३ ३४. अकृत का वेदन कौन करता है ? (यदि अकृत का वेदन हो तो) कृतनाश की बाधा आएगी। पांच प्रकार की गति--नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव तथा मोक्ष--भी नहीं होगी। देव या मनुष्य आदि में गति-आगति भी नहीं होगी। जातिस्मरण आदि क्रिया का भी अभाव होगा। ३. अफलत्व, स्तोकफलत्व तथा अनिश्चितकालफलत्व---ये अद्रम (वृक्ष का अभाव) के साधक हेतु नहीं हैं। अदुग्ध या स्तोकदुग्ध भी गोत्व का अभाव साधने वाले हेतु नहीं हैं। (इसी प्रकार सुप्त, मूच्छित आदि अवस्था में कथंचित् निष्क्रिय होने पर भी आत्मा को अक्रिय नहीं कहा जा सकता)। दूसरा अध्ययन : वैतालोय ३६,३७. दूसरे अध्ययन के तीन उद्देशकों का अर्थाधिकार इस प्रकार है--प्रथम उद्देशक में संबोधि तथा अनित्यत्व का कथन है। दूसरे उद्देशक में मान-वर्जन तथा अनेक प्रकार के अन्यान्य बहुविध विषय हैं। तीसरे उद्देशक में अज्ञान से उपचित कर्मों के अपचय का तथा यतिजनों के लिए सदा सुखप्रमाद के वर्जन का प्रतिपादन है। ३८. प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'विदारक' है। (यह क्रियापदवाचक नाम है। क्रियापद के सर्वत्र तीन घटक होते हैं--कर्ता, करण और कर्म)। इसके आधार पर विदारक, विदारण और विदारणीय-ये तीन घटक बनते हैं। इन तीनों के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-ये चार-चार निक्षेप हैं। द्रव्यविदारक वह है, जो काष्ठ आदि का विदारण करता है। भावविदारक है वह जीव, जो कर्मों का विदारण करता है। ३९. द्रव्य विदारण है---परशु आदि । भाव विदारण है--दर्शन, ज्ञान, तप और संयम (क्योंकि इनमें ही कर्म-विदारण का सामर्थ्य है।) द्रव्य विदारणीय है--काठ आदि तथा भाव विदारणीय है--आठ प्रकार का कम । ४०. प्रस्तुत अध्ययन में कर्मों के विदारण का निरूपण है, इसलिए इसका नाम 'विदारक' है। यह बैतालीय छन्द में निबद्ध है, इसलिए इसका अपर नाम वैतालीय है। ४१. यह अभ्युपगम है कि सारे आगम शाश्वत हैं और उनके अध्ययन भी शाश्वत हैं। फिर भी ऋषभदेव ने अष्टापद पर्वत पर अपने अदानवें पुत्रों को संबोधित कर इस अध्ययन का प्रतिपादन किया। इसको सुनकर वे सभी पुत्र भगवान के पास प्रवजित हो गए। ४२. द्रव्यनिद्रा है-निद्रावेद--निद्रा का अनुभव । भावनिद्रा है---ज्ञान, दर्शन, चारित्र की शून्यता । द्रव्यबोध है---द्रव्यनिद्रा में सोए व्यक्ति को जगाना। भावबोध है-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा संयम का भावबोध । प्रस्तुत में बोध-ज्ञान, दर्शन, तप तथा चारित्र का प्रसंग है । १. भगवान् ऋषभ अष्टापद पर्वत पर अवस्थित के प्रतिपादक प्रस्तुत अध्ययन को सुनाया । थे। चक्रवर्ती भरत द्वारा उपहत अद्रानवें पुत्र तब विषयों के कटविपाक तथा ऋषभ के पास आए और भगवान् से बोले-- नि:सारता को जान, मत्त हाथी के कर्ण की भंते ! भरत हमें आज्ञा मानने के लिए बाध्य भांति चपल आयु तथा गिरिनदी के वेग की कर रहा है। हमें अब क्या करना चाहिए ? तरह यौवन को जान, भगवद् आज्ञा ही भगवान् ने अंगारदाहक के दृष्टान्त के माध्यम श्रेयस्करी है, ऐसी अवधारणा कर वे सभी से बताया कि भोगेच्छा कभी शांत नहीं होती। पुत्र भगवान् के पास दीक्षित हो गए। वह आगे से आगे बढ़ती जाती है । इस अर्थ (सूटी. पृ. ३६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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