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नियुक्तिपचक
८. दो प्रकार के वीर्य (बालवीर्य और पंडितवीर्य) को जानकर पंडितवीर्य में प्रयत्न करना चाहिए।
९. यथावस्थित धर्म का कथन । १०. समाधि का प्रतिपादन । ११. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक मोक्षमार्ग का निरूपण ।
१२. चार वादों-क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद तथा वैनयिकवाद--में समवसत तत्त्वों का निराकरण ।
१३. सर्ववादियों के कुमार्ग के निरूपण का प्रतिपादन ।
१४. ग्रन्थ नामक अध्ययन में शिष्यों के गुणों तथा दोषों का कथन तथा नित्य गुरुकूलवास में रहने का उपदेश ।
१५. 'आदानीय' अध्ययन में पूर्व उपन्यस्त आदानीय पद का संकलन तथा सम्यक चारित्र का वर्णन।
१६. पूर्वोक्त अध्ययनों में अभिहित सभी अर्थों का संक्षिप्त कथन ।
प्रथम अध्ययन : समय
२९-३१. पहले अध्ययन के चार उद्देशक हैं। पहले उद्देशक के छह अर्थाधिकार हैं--१. पंच महाभूतों का वर्णन, २. एकात्मवाद (आत्मा-अद्वैतवाद), ३. तज्जीव-तच्छरीरवाद, ४. अकारकवाद, ५. आत्मषष्ठवाद, ६. अफलवाद । दूसरे उद्देशक के चार अर्थाधिकार हैं---१. नियतिवाद, २. अज्ञानवाद, ३. ज्ञानवाद, ४. भिक्षसमय अर्थात् शाक्य आगम में चारों प्रकार के कर्मों का उपचय नहीं होता, इसका प्रतिपादन। तीसरे उददेशक में दो अर्थाधिकार हैं--१. आधाकर्म तथा २. कृतवादियों के वाद का प्रतिपादन । चौथे उददेशक का अर्थाधिकार है--अविरत अर्थात् गृहस्थों के कृत्यों से परतीथिकों को उपमित करना।
३२. 'समय' शब्द के बारह निक्षेप हैं :-- १. नाम समय ५. काल समय
९. गण समय २. स्थापना समय ६. कुतीर्थ समय
१०, संकर समय ३. द्रव्य समय ७. संगार समय
११. गंडी समय ४. क्षेत्र समय ८. कुल समय
१२. भाव समय ३३. पृथ्वी आदि पांचों भूत अलग-अलग गुण वाले हैं। उनके संयोग से चेतना, भाषा, चंक्रमण आदि गुण उत्पन्न नहीं होते । पांच इन्द्रियों के पांच स्थान अथवा पांच उपादान कारण भी अचेतन हैं। उनके समुदाय से चैतन्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इन्द्रियां प्रत्येक भूतात्मक हैं। एक का जाना हुआ दूसरी नहीं जान सकती। (इनमें संकलनात्मक प्रत्यय नहीं होता ।)
१. स्थानानि-अवकाशाः । स्थानानि-उपादान कारणानि।
(सूटी पृ ११) इन्द्रियों के स्थान-उपादानकारण इस प्रकार
हैं---श्रोत्रेन्द्रिय का आकाश, घ्राणेन्द्रिय का पृथ्वी, चक्षुइन्द्रिय का तेजस्, रसनेन्द्रिय का पानी, स्पर्शनेन्द्रिय का वायु ।
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