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________________ नियुक्ति चक ४३. महर्षियों ने अपने आत्म-उन्नयन के लिए जप, तप, संयम और ज्ञान में होने वाले मान को भी त्याग दिया है, तो भला आत्मोत्कर्ष हेतु दूसरों की निन्दा के त्याग की तो बात ही क्या है ? ४४. आठ मदों का मथन करने वाले अहतों ने निर्जरामद का भी प्रतिषेध किया है, इसलिए अवशिष्ट सभी मदस्थानों का प्रयत्नपूर्वक परिहार करना चाहिए। तीसरा अध्ययन : उपसर्ग-परिज्ञा ४५,४६. इस अध्ययन के चार उद्देशक हैं। पहले उद्देशक में प्रतिलोम तथा दूसरे उद्देशक में अनुलोम उपसर्ग प्रतिपादित हैं। तीसरे उद्देशक में अध्यात्म का विशेष उपदर्शन तथा परवादिवचनों का निरूपण है। चौथे उद्देशक में हेतु सदृश अहेतुओं के द्वारा जो अन्यतीथिकों से व्युद्ग्राहितप्रताड़ित हैं, उन शील-स्खलित व्यक्तियों की प्रज्ञापना है।। ४७. उपसर्ग शब्द के नाम, स्थापना आदि छह निक्षेप हैं। द्रव्य उपसर्ग के दो प्रकार हैं --चेतनकृत तथा अचेतनकृत। जो आगन्तुक उपसर्ग हैं, वह (शरीर तथा संयम का) पीड़ाकारी होता है। ४८. जिस क्षेत्र में सामान्यतः अनेक भयस्थान होते हैं, (जैसे---चोर, क्रूर व्याधि तथा लाढ आदि देश के क्षेत्र), वह क्षेत्र उपसर्ग है। काल उपसर्ग एकान्त दुष्षमाकाल आदि ।' कर्मों का उदय भाव उपसर्ग है। वह दो प्रकार का है-औधिक तथा औपक्रमिक । ४९. औपक्रमिक उपसर्ग संयम-विघातकारी होता है । द्रव्य औपक्रमिक उपसर्ग चार प्रकार का है-दैविक, मानुषिक, तैर्यश्चिक तथा आत्मसंवेदन । प्रस्तुत में औपक्रमिक उपसर्ग का प्रसंग है। ५० प्रत्येक के चार-चार प्रकार हैं।' दैविक आदि चार प्रकार के अनुकल तथा प्रतिकूल के भेद से आठ भेद होते हैं। दैविक आदि चार भेदों के चार-चार प्रकार करने से ४४४ सोलह भेद होते हैं । इन उपसर्गों का संबंध होनो तथा उनको सहने के प्रति यतना रखना--यह इस अध्ययन में प्रतिपादित है। यही इसका अर्थाधिकार है। ५१. कोई पुरुष मंडलाग्र से किसी मनुष्य का शिरच्छेद कर पराङ मुख होकर बैठ जाए तो क्या वह अपराधी के रूप में नहीं पकड़ा जाएगा? ५२. कोई व्यक्ति विष का घंट पीकर चुपचाप बैठ जाए और वह किसी के दग्गोचर भी न हो तो क्या वह उस विष के प्रभाव से नहीं मरेगा? ५३. कोई व्यक्ति भांडागार से रत्नों को चुराकर उदासीन होकर बैठ जाए तो क्या वह अपराधी के रूप में नहीं पकड़ा जाएगा? १. आदि शब्द से जो जिस क्षेत्र में दुःखोत्पादक प्रद्वेष से, विमर्श से तथा कुशील प्रतिसेवना हो (ग्रीष्म, शीत आदि)। से । तैर्यश्चिक-भय से, प्रद्वेष से, आहार से २. औधिक-अशुभ कर्म प्रकृति से उत्पन्न तथा संतान-संरक्षण से। आत्मसंवेदन भावोपसर्ग । औपक्रमिक-दण्ड, शस्त्र आदि घटना से, संश्लेष से, स्तंभन से तथा गिरने द्वारा असातवेदनीय का उदय होना। से । अथवा वात, पित्त, कफ तथा सन्निपात ३. दैविक-हास्य से, प्रद्वेष से, विमर्श से तथा से उत्पन्न । (सूटी पृ. ५२) पृथग विमात्रा से। मानुषिक-हास्य से, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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