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________________ ७२ नियुक्तिपंचक देशकाल-अवसर । कालकाल-मरणकाल । प्रमाणकाल-दिवस आदि का विभाग । वर्णकाल-श्वेत, कृष्ण आदि वर्णगत काल । भावकाल-औदयिक आदि भाव। प्रस्तुत प्रकरण में भावकाल का प्रसंग है। ११. सामायिक (आवश्यक का प्रथम अध्ययन) के अनुक्रम से वर्णन करने के लिए आचार्य शय्यंभव ने दिन के अंतिम प्रहर में इस आगम का नि!हण किया, इसलिए इसका नाम दशवकालिक १२. जिस आचार्य ने, जिस वस्तु (प्रकरण) को अंगीकार कर, जिस पूर्व से, जितने अध्ययन, जिस क्रम से स्थापित किए हैं, उस आचार्य का, उस प्रकरण का, उस पूर्व का, उतने अध्ययनों का क्रमशः प्रतिपादन करना चाहिए। १३. मैं दशवकालिक के निर्यहक गणधर शय्यंभव को वंदना करता है। वे मनि मनक के पिता थे और स्वयं जिनेश्वर भगवान् की प्रतिमा देखकर प्रतिबुद्ध हुए थे। १४. आचार्य शय्यंभव ने अपने पुत्र शिष्य मुनि मनक के लिए दस अध्ययनों का निर्यहण किया । निर्वृहण विकाल में हुआ इसलिए इस ग्रंथ का नाम दश-वैकालिक हुआ। १५,१६. आत्मप्रवाद पूर्व से धर्मप्रज्ञप्ति (चतुर्थ अध्ययन), कर्मप्रवाद पूर्व से तीन प्रकार की पिण्डैषणा (पंचम अध्ययन), सत्यप्रबाद पूर्व से वाक्यशुद्धि (सप्तम अध्ययन) तथा शेष अध्ययनों (१,२,३,६,८,९,१०) का नवमें प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु से नि!हण हुआ है। १७. दूसरे विकल्प के अनुसार शय्यंभव ने अपने पुत्र मुनि मनक को अनुगृहीत करने के लिए संपूर्ण दशवकालिक का नि!हण द्वादशांगी-गणिपिटक से किया। १८. 'द्रुम-पुष्पिका' से 'सभिक्षु' पर्यन्त दस अध्ययन हैं। अध्ययनों के अधिकार के प्रसंग में प्रत्येक अध्ययन का मैं पृथक्-पृथक् रूप से वर्णन करूंगा। १९-२२. प्रथम अध्ययन में जिनशासन में प्रचलित धर्म की प्रशंसा है। दूसरे अध्ययन में धति का वर्णन है । धुति से ही व्यक्ति धर्म की आराधना कर सकता है। तीसरे अध्ययन में आत्म-संयम में हेतुभूत लघु आचार कथा का, चौथे अध्ययन में जीव संयम का, पांचवें अध्ययन में तप और संयम में गुणकारक भिक्षा की विशोधि का, छठे अध्ययन में महान् संयमी व्यक्तियों द्वारा आचरणीय महती आचारकथा का, सातवें अध्ययन में वचन-विभक्ति (बोलने का विवेक) का, आठवें अध्ययन में आचार-प्रणिधि का, नौवें अध्ययन में विनय का तथा अंतिम दसवें अध्ययन में भिक्ष का स्वरूप प्रतिपादित है। २३. इस आगम के दो अध्ययन और हैं, जिन्हें चूला कहा जाता है। पहली चूला में संयम में विषाद-प्राप्त साधु को स्थिर करने के उपाय निर्दिष्ट हैं और दूसरी में अत्यधिक प्रसादगुण फलवाली विविक्त चर्या-अप्रतिबद्ध चर्या का निर्देश है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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