SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 704
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५७३ लायेगा इसलिए तुम यहां सुखपूर्वक रहो, उद्वेग मत करो। मैं तुम्हारे आदेश का पालन करूंगा।' वह देव उसी प्रासाद में उसके साथ रहने लगा। कनकमाला भी सुखपूर्वक उसके साथ रहने लगी। एक बार देव मेरु पर्वत पर चैत्य-वंदन हेतु गया। उसी दिन मध्याह्न काल में विपरीत शिक्षा वाले घोड़े पर बैठा सिंहरथ वहां आया। राजा ज्यों-ज्यों लगाम खींचता त्यों-त्यों वह तेजी से दौड़ता था। बारह योजन तक चलने पर राजा ने लगाम ढीली छोड़ी। घोड़ा भी वहीं रुक गया। उसे एक वृक्ष से बांध राजा वहां घूमने लगा। वह रात बिताने हेतु पहाड़ पर चढ़ा। वहां सप्तभौम प्रासाद देखा। राजा महल के अंदर गया। वहां उसने सुन्दर कन्या देखी। दोनों एक दूसरे को देखकर अनुरक्त हो गए। राजा ने उसका परिचय पूछा। उसने कहा-'पहले मेरे साथ विवाह करो फिर मैं अपना सारा वृत्तान्त सुनाऊंगी।' राजा ने अति उत्कंठा से उसके साथ विवाह किया। रात बीतने पर प्रात:काल कनकमाला ने सारी बात बताई। अपने वत्तान्त को सुनकर सिंहरथ को जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो । इसी बीच देवांगनाओं के साथ वह व्यन्तर देव वहां आया। राजा ने उसको प्रणाम किया। देवता ने हर्षपूर्वक उसका अभिनंदन किया। कनकमाला ने अपने विवाह की बात देव को बताई। यह सुनकर वह बहुत हर्षित हुआ। बातचीत करते-करते मध्याह्न का समय हो गया। राजा ने अपनी पत्नी कनकमाला के साथ दिव्य आहार किया। एक मास तक वह वहीं रहा। एक दिन राजा सिंहरथ ने कनकमाला से कहा-'मेरे न रहने से प्रतिपक्षी राजा मेरे राज्य में उपद्रव करेंगे अत: अब चलना चाहिये।' कनकमाला ने कहा- 'जैसी आपकी आज्ञा। पर एक बात है, आपका नगर बहुत दूर है अतः वहां तक पैदल चलना कैसे होगा? मेरे पास प्रज्ञप्ति विद्या है। आप मेरे से प्रज्ञप्ति विद्या साध लें'। कनकमाला ने राजा सिंहरथ को वह विद्या सिखा दी। कनकमाला से पूछकर वह अपने नगर पहुंचा। नागरिकों ने महोत्सव का आयोजन किया। सामंतों ने राजा से सारी बात पूछी। राजा ने सारा घटना-प्रसंग उनको सुनाया। सुनकर सभी लोग विस्मित हो गए। सामन्तों ने कहा-'पुण्यशाली जीव चाहे समुद्र में चला जाए या अटवी में, लेकिन अपने पुण्यों के प्रभाव से वहां भी आनन्द मनाता है।' राजा पांच-पांच दिनों से उसी पर्वत पर कनकमाला से मिलने जाया करता था। कनकमाला के साथ कुछ दिन रहकर वह अपने नगर लौट आता था। लोग कहते राजा पर्वत पर जाता है। इसलिए उसका 'नग्गति' नाम प्रसिद्ध हो गया। एक बार नग्गति राजा घूमने के लिए पर्वत पर गया। व्यन्तर देव ने कहा-'यहां रहते हुए मुझे बहुत समय बीत गया है अतः स्वामी के आदेश से किसी कार्यवश मुझे जाना होगा। संभव है कुछ समय लग जाए। कनकमाला मेरे विरह में अधीर हो जाएगी अत: ऐसा उपाय करना जिससे यह अकेली न रहे।' ऐसा कह देव वहां से चला गया। राजा ने सोचा-इसके मन की शांति का और कोई उपाय नहीं है अत: उसी पर्वत पर एक नगर बसा दिया। प्रलोभन देकर वह अपनी बहुत सी प्रजा को वहां से लेकर आ गया। वहां उसने जिनभवनों का निर्माण कर दिया। उसमें प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवा दी। यात्रा-महोत्सव करते हुए तथा न्याय से राज्य की परिपालना करते हुए समय बीतने लगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy