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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
७३ भगवती तथा पण्णवणा जैसे सैद्धांतिक ग्रंथों में इन अवस्थाओं का उल्लेख न मिलने से यह स्पष्ट है कि इन दश अवस्थाओं की अवधारणा बाद में विकसित हुई। दश अवस्थाओं का सबसे प्राचीन उल्लेख आचारांग नियुक्ति में मिलता है। आ. उमास्वाति ने नौवें अध्याय में इन अवस्थाओं का उल्लेख किया
गुणश्रेणी-विकास की इन दश अवस्थाओं का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भद्रबाहु ने किया, इस कथन की पुष्टि इस बात से की जा सकती है कि आत्मा की निर्मलता या निर्जरा की तरतमता का ज्ञान या तो तीर्थंकर अपने अतिशायी ज्ञान से जान सकते हैं अथवा चतुर्दशपूर्वी अपने श्रुतज्ञान के वैशिष्ट्य से। निर्जरा की तरतमता सामान्यज्ञानी के लिए जानना असंभव है अत: कहा जा सकता है कि गुणश्रेणी विकास की दश अवस्थाएं आचार्य भद्रबाहु की मौलिक देन है। सम्यक्त्व की उपलब्धि अनंत निर्जरा का कारण है अत: आचारांग की सम्यक्त्व अध्ययन की नियुक्ति में इन अवस्थाओं का वर्णन प्रासंगिक लगता है किन्तु तत्त्वार्थ सूत्रकार ने विषय को महत्त्वपूर्ण समझकर संवर के अंतर्गत तप के प्रसंग में निर्जरा का तारतम्य बताने वाली इन अवस्थाओं का समाहार किया है। वहां यह वर्णन प्रासंगिक जैसा नहीं लगता।
- आचार्य उमास्वाति ने प्रथम अवस्था सम्यक्त्व-उत्पत्ति के स्थान पर सम्यग्दृष्टि तथा चौथी अवस्था अनंतकर्माश के स्थान पर अनंतवियोजक नाम का उल्लेख किया है। परवर्ती श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य में कुछ अंतर के साथ इन अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है। नामों के सूक्ष्म अंतर को निम्न चार्ट के माध्यम से जाना जा सकता है
श्वेताम्बर परम्परा शिवशर्मकृत कर्मग्रंथ चन्द्रर्षिकृत पंचसंग्रह देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रंथ १. सम्यक्त्व-उत्पत्ति सम्यक्त्व
सम्यक् २. श्रावक देशविरति
दरविरति ३. विरत सम्पूर्ण विरति
सर्वविरति ४. संयोजना-विनाश अनंतानुबंधी विसंयोग अनंतविसंयोग ५. दर्शनमोहक्षपक दर्शनमोहक्षपक
दर्शनक्षपक ६. उपशमक उपशमक
शम ७. उपशांत उपशांत
शांत
१. तत्त्वार्थसूत्र ९/४७; सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानंतवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपक-क्षीणमोहजिना:
क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा। २. कर्मप्रकृति (उदयकरण) गा. ३९४, ३९५;
सम्मत्तप्पा सावय, विरए संयोजणाविणासे य। दंसणमोहक्खवगे. कसाय-उवसामगवसंते।।
खवगे य खीणमोहे, जिणे य दुविहे हवे असंखगुणा। उदयो तद्विवरीओ, कालो संखेज्जगुणसेढी।। ३. पंचसंग्रह, बंधद्वार गा. ३१४, ३१५;
सम्मत्तदेससंपुन्नविरइउप्पत्ति अणविसंजोगे। दंसणखवणे मोहस्स, समणे उवसंत खवगे य।।
खीणाइतिगे असंखगुणियसेढिदलिय जहकमसो। सम्मत्ताईणेक्कारसण्ह कालो उ संखंसे।। ४. शतक, पंचम कर्मग्रंथ गा. ८२;
सम्मदरसव्वविरई, अणविसंजोयदंसखवगे य। मोहसमसंतखवगे, खीण-सजोगियर गुणसेढी।।
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