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________________ ७४ नियुक्तिपंचक शिवशर्मकृत कर्मग्रंथ चन्द्रर्षिकृत पंचसंग्रह देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रंथ ८. क्षपक क्षपक क्षपक ९. क्षीणमोह क्षीणमोह क्षीण १०. द्विविध जिन सयोगी केवली सयोगी (केवली) (सयोगी एवं अयोगी) अयोगी केवली अयोगी (केवली) (ई. सन् पांचवीं शती) (ई. सन् आठवीं शती) (विक्रम की पांचवीं शती) दिगम्बर परम्परा स्वामीकुमारकृत कार्तिकेयानुप्रेक्षा' षट्खंडागम, गोम्मटसार (जीवकाण्ड)२ १. मिथ्यादृष्टि १. सम्यक्त्व-उत्पत्ति २. सद्वृष्टि २. श्रावक ३. अणुव्रतधारी ३. विरत ४. ज्ञानी महाव्रती ४. अनंतकर्माश ५. प्रथमकषायचतुष्कवियोजक ५. दर्शनमोहक्षपक ६. दर्शनमोहत्रिक क्षपक ६. कषायउपशमक ७. उपशमक ७. उपशांत ८. क्षपक ८.क्षपक ९. क्षीणमोह ९. क्षीणमोह १०. सयोगी (नाथ) १०. जिन ११. अयोगी (नाथ) (ई. सन् पांचवीं शती) (विक्रम की पांचवीं शती) उमास्वाति के बाद लगभग सभी आचार्यों ने जिन के सयोगी और अयोगी—ये दो भेद करके ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख किया है। स्वामीकुमारकृत कार्तिकेयानुप्रेक्षा में उपशांत अवस्था का उल्लेख नहीं है। उन्होंने सम्यग्दृष्टि से पूर्व की अवस्था मिथ्यादृष्टि को माना है तथा जिन के स्थान पर नाथ का प्रयोग करके उसके सयोगी और अयोगी—ये दो भेद किए हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के टीकाकार शुभचन्द्र ने उपशांत अवस्था की व्याख्या की है। १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा ९/१०६-१०८; मिच्छादो सद्दिट्ठी, असंखगुणकम्मनिज्जरा होदि। तत्तो अणुवयधारी, तत्तो य महव्वई णाणी।। पढमकसायचउण्ह, विजोजओ तह य खवणसीलो य। दंसणमोहतियस्स य तत्तो उवसमग चत्तारि।। खवगो य खीणमोहो, सजोइणाहो तहा अजोईया। एदे उवरि उवरिं, असंखगुणकम्मणिज्जरया।। २. (क) षट्खंडागम, वेदनाखंड, गा. ७, ८ पृ. ६२७ । (ख) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गा. ६६, ६७; सम्मत्तुप्पत्तीये, सावयविरदे अणंतकम्मसे। दंसणमोहक्खवगे, कसायउवसामगे य उवसंते।। खवगे य खीणमोहे, जिणेसु दव्वा असंखगुणिदकमा। तव्विवरीया काला, संखेज्जगुणक्कमा होति।। ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, पृ. ५२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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