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नियुक्तिपंचक
की मनोजता। जैसे-वर्ण शुक्ल, रस मधुर, गंध सुरभि और स्पर्श मृदु। ये उत्कृष्ट और कमनीय माने जाते हैं।
२६२. द्रव्यशुद्धि की भांति भावशुद्धि भी तीन प्रकार की है-तद्भावशुद्धि, आदेशभावशुद्धि तथा प्रधानभावशुद्धि । तद्भावशुद्धि अन्य भावों से निरपेक्ष होती हैं । आदेशभावशुद्धि सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों होती हैं।
२६३. दर्शन ज्ञान, चारित्र तथा तप विषयक विशुद्धि ज्ञानादि की अपेक्षा से प्रधानभावशुद्धि है। ज्ञान आदि की शुद्धि से ही आत्मा कर्ममल से विशुद्ध होती है और वह विशुद्ध आत्मा मुक्त होती है।
२६४. जिस वाक्य को बोलने से संयम की शुद्धि होती है, हिंसा नहीं होती, आत्मा में कालुष्य नहीं होता, वह वाक्य-शुद्धि है।
२६५. जो वचन-विभक्ति (वाच्य और अवाच्य का विवेक) में कुशल होता है, जो संयम में प्रवत्त चित्त बाला है, वह भी असद् वचनों से विराधक बन जाता है, इसलिए मुनि को असद् वचनों ----वर्जनीय वचनों का परिज्ञान कर लेना चाहिए।
२६६. जो वचन-विभक्ति में अकुशल है, बहुविध वाग्योग से अजानकार है, वह कुछ भी नहीं बोलने पर भी वारगुप्त नहीं होता।
२६७. जो वचन-विभक्ति में कुशल है, अनेक प्रकार के वचोयोग का ज्ञाता है, वह दिन भर बोलता हुआ भी वाग्गुप्त होता है ।
२६८. पहले बुद्धि से सोचकर, फिर वचन बोले। जैसे अंधा व्यक्ति अपने नेता-हाथ पकडकर ले जानेवाले--का अनुगमन करता है, वैसे ही वाणी बुद्धि का अनुगमन करती है। आठवां अध्ययन : आचारप्रणिधि
२६९. जिस आचार का तीसरे अध्ययन में प्रतिपादन कर चुके हैं, वह न्यूनातिरिक्त प्रस्तुत अध्ययन में भी जान लेना चाहिए। प्रणिधि के दो प्रकार हैं--द्रव्यप्रणिधि और भावप्रणिधि ।
२७०. निधान आदि द्रव्य तथा मायाप्रयक्त द्रव्य द्रव्यप्रणिधि कहलाते हैं। भावप्रणिधि के दो प्रकार हैं- इन्द्रियप्रणिधि और नोइन्द्रियप्रणिधि । इन्द्रियप्रणिधि के दो प्रकार हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त ।
. २७१. शब्द, रूप, गंध, रस तथा स्पर्श में न राग हो और न द्वेष हो. वह प्रशाम्त गि प्रणिधि है।
२७२,२७३. उच्छंखल श्रोत्रेन्द्रिय की रज्जु से बंधा हुआ शब्द-मूच्छित जीव अनुपयुक्त होकर शब्दगुणों से समुत्थित दोषों को ग्रहण करता है। जैसा शब्दविषयक यह दोष है वैसा ही क्रम अन्य सभी इन्द्रियों के विषय में है। व्यक्ति शेष चारों इन्द्रियों के रूप, गंध, रस और स्पर्श विषयगत दोषों को ग्रहण करता है।
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