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________________ दशकालिक नियुक्ति २५२. असत्यामृषा ( व्यवहार भाषा ) के बारह प्रकार हैं १. आमंत्रणी २. आज्ञापनी ३. याचनी o ४. प्रच्छनी ५. प्रज्ञापनी ६. प्रत्याख्यानी २५३. असत्यामृषा भाषा के ये प्रकार हैं अनभिगृहीतभाषा - किसी अर्थ की ओर संकेत न करनेवाली, जैसे - डित्थ आदि । अभिगृहीतभाषा- किसी अर्थ का स्पष्ट संकेत करनेवाली, जैसे-- घट आदि । ७. इच्छानुलोमा ८. अभिगृहीता ९. अभिगृहीता १०. संशयकारिणी ११. व्याकृत १२. अव्याकृत । ० ० संशयकरणीभाषा - अनेक अर्थ देनेवाली भाषा, जैसे— सैन्धव शब्द । इसके दो अर्थ हैं - नमक और अश्व | • व्याकृत भाषा - स्पष्ट अर्थ देने वाली भाषा । • अव्याकृत भाषा — अस्पष्ट भाषा, जैसे- बच्चों द्वारा थपथप करना आदि । ९५ २५४. सभी भाषाएं दो-दो प्रकार की हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त । प्रथम दो भाषाएं - सत्य और मृषा--- ये पर्याप्त हैं तथा दो भाषाएं- सत्यमृषा और असत्यामृषा - ये अपर्याप्त हैं । २५५. श्रुत धर्म विषयक भावभाषा के तीन प्रकार हैं-सत्यभाषा, मृषाभाषा तथा व्यवहारभाषा । श्रुतोपयुक्त सम्यग्दृष्टि व्यक्ति सत्य भाषा बोलता है । २५६. श्रुत में अनुपयुक्त सम्यग्दृष्टि जो अहेतुक भाषा बोलता है, वह मृषा भाषा है । मिथ्यादृष्टि व्यक्ति भी श्रुतोपयुक्त या श्रुत-अनुपयुक्त होकर जो कुछ बोलता है, वह मृषा भाषा है । २५७. जो श्रुत - आगम का परावर्तन करता है तथा जो अंतिम तीन ज्ञानों - अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान में उपयुक्त होकर बोलता है वह असत्यमृषा (व्यवहार) भाषा चारित्र विषयक भाव-भाषा का कथन करूंगा । | अब आगे २५८. चारित्र विषयक भावभाषा के दो प्रकार हैं-- सत्यभाषा और मृषाभाषा । सचरित्र - चरित्रपरिणामवाले व्यक्ति की तथा चारित्र की वृद्धि करनेवाली भाषा सत्य तथा अचरित्र - चरित्र - परिणाम से शून्य व्यक्ति की तथा अचरित्र की वृद्धि करनेवाली भाषा मृषा होती है । Jain Education International २५९. शुद्धि के चार प्रकार हैं- नामशुद्धि, स्थापनाशुद्धि, द्रव्यशुद्धि तथा भावशुद्धि | अब इनकी पृथक्-पृथक् प्ररूपणा करणीय है । २६०,२६१. द्रव्यशुद्धि के तीन प्रकार हैं- तद्-द्रव्यशुद्धि, आदेश - द्रव्यशुद्धि, प्राधान्यद्रव्यशुद्धि | जो द्रव्य अन्य द्रव्यों से असंयुक्त होकर ही शुद्ध होता है, वह 'तद् - द्रव्यशुद्धि' है (जैसेदूध, दही आदि ) | आदेश - द्रव्यशुद्धि के दो भेद हैं- अन्यत्व शुद्धि - शुद्ध वस्त्रों वाला व्यक्ति । अनन्यत्व शुद्धि-शुद्ध दांतों वाला व्यक्ति । प्राधान्यशुद्धि का तात्पर्य है - वर्ण, रस, गंध और स्पर्श १. पर्याप्त का अर्थ है जिस भाषा का एक पक्ष - सत्य या मृषा में निक्षेप होता हो । इससे विपरीत भाषा अपर्याप्त है । (हाटी० प० २१० ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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