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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण ८३ द्रव्य आदि को भी रत्नों के अंतर्गत माना है। कीमती होने के कारण संभवत: इनको रत्न के अंतर्गत रखा गया है। स्थावर-भूमि, घर और वन-सम्पदा—ये तीन स्थावरसम्पत्ति के अंतर्गत आते हैं। आज की भाषा में इन्हें अचल सम्पत्ति कहा जा सकता है। द्विपद-दो पहियों से चलने वाली गाड़ी एवं दास आदि। उस समय दास आदि को भी समृद्धि का प्रतीक माना जाता था क्योंकि दास खरीदे जाते थे। चतुष्पद-चतुष्पद के गाय आदि १४ प्रकार हैं। कुप्य—सामान्य रूप से प्रतिदिन घर में काम आने वाले सभी उपकरण । इस प्रकार चौंसठ प्रकार से सम्पदा का संग्रह या विनिमय किया जाता था। काम आगमों में जिन दश संज्ञाओं का उल्लेख है, उनमें मैथुन संज्ञा इसी का पर्याय है। विषय और इंद्रियों के सम्पर्क से उत्पन्न होने वाला मानसिक सुख काम है। महाभारत में अर्थ की समृद्धि से होने वाले आनंद को काम कहा गया है। वात्स्यायन के अनुसार आत्मा से संयुक्त मन से अधिष्ठित कान, त्वचा, आंख, जिह्वा और नाक आदि इंद्रियों का अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होना काम है। उन्होंने उसी प्रवृत्ति को काम माना है, जो धर्म के अनुकूल हो । आधुनिक विचारकों में फ्रायड ने इस मनोवृत्ति पर सूक्ष्मता से चिन्तन किया और इसे मौलिक वृत्ति के रूप में स्वीकार किया। संसार से विरक्त एवं निवृत्ति मार्ग पर प्रस्थित होते हुए भी नियुक्तिकार ने काम की जिन अवस्थाओं का वर्णन किया है, वह उनके बाहुश्रुत्य एवं अन्य ग्रंथों के गहन अध्ययन की ओर संकेत करता है। दशवैकालिकनियुक्ति में काम के दो भेद मिलते हैं—१. असंप्राप्त काम २. संप्राप्त काम। संप्राप्त काम का अर्थ है—प्रिय व्यक्ति के सामने रहने पर होने वाली मानसिक एवं शारीरिक अवस्थाएं। असंप्राप्त काम का तात्पर्य है—प्रिय की अनुपस्थिति में होने वाली अवस्थाएं। असंप्राप्त काम की दश अवस्थाएं हैं १. अर्थ-किसी के रूप को सुनकर होने वाली आसक्ति। २. चिंता—बार-बार उसी के गुणों का चिन्तन । ३. श्रद्धा—प्रिय के प्रति पूर्ण समर्पणभाव, उससे मिलने की अभिलाषा । ४. संस्मरण—वियोग में बार-बार उसी की स्मृति। ५. विक्लवता—वियोग होने पर आहार आदि में अरुचि होना, बैचेनी होना। ६. लज्जा-परित्याग-गुरु-जनों के सामने भी बार बार उसी के नाम एवं गुणों का स्मरण। ७. प्रमाद—सब कार्यों को छोड़कर उसी का चिन्तन तथा शब्दादि विषयों में अरुचि। १. दशनि २३३। २. दशनि २३४। ३. दशनि २३५ । ४ मभा., वनपर्व ३७/८ । ५. कामसूत्र; १/२/११; श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिहाघ्राणानामात्मसंयुक्तेन मनसाधिष्ठितानां स्वेषु स्वेषु विषयेष्वानुकूल्यत: प्रवृत्ति: कामः.............. | आत्मसंयुक्तेन मनसा धर्मानुकूलेन प्रवृत्ति: कामः । ६. दशनि २३७, २३८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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