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________________ ८२ सूत्रकृतांग निर्युक्ति (सूनि १००, १०१ ) के अनुसार धर्म के भेद-प्रभेद इस प्रकार हैं धर्म मति नामधर्म सचित्तधर्म अचित्तधर्म मिश्रधर्म अवधि Jain Education International स्थापनाधर्म औपशमिक गृहस्थधर्म मनः पर्यव सास्वादन द्रव्यधर्म गृहस्थधर्म ज्ञानधर्म केवल १. मभा. शांतिपर्व १६७/११, १२ । २. कामसूत्र, १/२/८; विद्या- भूमि- हिरण्य-पशु-धान्य- भाण्डोपस्करमित्रादीनामर्जनमर्जितस्य विवर्धनमर्थः । भावधर्म लौकिकधर्म लोकोत्तरधर्म अन्यतीर्थधर्म दर्शनधर्म क्षायोपशमिक वेदक क्षायिक For Private & Personal Use Only निर्युक्तिपंचक सामायिक छेदोपस्थापनीय परिहारविशुद्ध सूक्ष्मसंपराय यथाख्यात अर्थ सांसारिक प्राणी के लिए भौतिक सुख-सुविधा की सामग्री अर्थ से ही संभव है । महाभारत में कृषि, वाणिज्य और गो-पालन को अर्थ कहा गया है क्योंकि इनके मूल में अर्थ - प्राप्ति का लक्ष्य रहता है। आचार्य वात्स्यायन अर्थ को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि विद्या, भूमि, सुवर्ण, पशु, बर्तन, उपकरण, मित्र एवं अन्य वस्तुओं को प्राप्त करना तथा उनकी वृद्धि करना अर्थ है ।' महाभारत में धर्म और काम को अर्थ का ही अंग माना है। कौटिलीय ने भी अर्थ को धर्म और काम का मूल माना है। समय के अनुसार अर्थ के विनिमय एवं उसके स्वरूप में परिवर्तन होता रहा है। प्राचीन काल में सिक्कों का अस्तित्व होते हुए भी वस्तुओं का विनिमय प्रायः वस्तुओं से होता था। आज वह रुपयों से होने लगा । निर्युक्तिकार के समय अर्थ (सम्पत्ति) को छह रूपों में सुरक्षित रखा जाता था— धान्य, रत्न, स्थावर, द्विपद, चतुष्पद, कुप्य । धान्य — धान्य २४ प्रकार का होता है। रत्न— रत्न के भी २४ प्रकार हैं ।" नियुक्तिकार ने चंदन, शंख, अगरु, चर्म, दंत, केश के सौगंधिक चारित्रधर्म ३. मभा. शांतिपर्व १६७/१४, कौटि. १/३/६/३ अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति । ४. दशनि २२९, २३० निभा १०२९, १०३० । ५. दशनि २३१, २३२, निभा १०३१ । www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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