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________________ नियुक्तिपंचक बोधक है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप का बोध इसी के द्वारा होता है। कोई भी शब्द या ज्ञान तब तक केवल द्रव्य तक सीमित है, जब तक उसमें उपयोग की चेतना या तन्मयता नहीं जुड़ती। भाव निक्षेप में भाषा और भाव की संगति होती है। संसार का सारा व्यवहार निक्षेप-पद्धति से चलता है। बच्चा जब जन्म लेता है,तब वह केवल नाम निक्षेप के जगत् में जीता है। थोड़ा बड़ा होने पर वह उसमें कल्पना द्वारा किसी वस्तु की स्थापना करता है, जैसे--प्लास्टिक की गुड़िया में मां या बहिन की स्थापना। धीरे-धीरे वह त्रैकालिक ज्ञान करने में सक्षम हो जाता है और बाद में बुद्धि की सूक्ष्मता और समझ विकसित होने पर वह भावनिक्षेप द्वारा व्यवहार चलाता है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने पर्याय के आधार पर नाम आदि चार निक्षेपों की एक ही वस्तु में अवस्थिति स्वीकार की है। अर्थात् वस्तु का अपना अभिधान नाम निक्षेप है। वस्तु का आकार स्थापना निक्षेप है। वस्तु भूत और भावी पर्याय का कारण है अत: वह द्रव्य निक्षेप है। कार्य रूप में विद्यमान वस्तु भावनिक्षेप है। निक्षेप अनेकान्त का व्यावहारिक प्रयोग है, जैसे अतीत में कोई धनी था, उसे वर्तमान में भी सेठ कहा जाता है, यह असत्य बात हो सकती है लेकिन द्रव्य निक्षेप द्वारा यह भी संभव है। निक्षेप न्याय शास्त्र तथा भाषा-विज्ञान के अंतर्गत अर्थ विकासविज्ञान (सेमेनेटिक्स) का महत्त्वपूर्ण अंग है। नियुक्तिकार ने ही अपनी व्याख्या-पद्धति में इसे अपनाया, परवर्ती व्याख्याकारों ने इस पर इतना ध्यान क्यों नहीं दिया, यह एक खोज का विषय है। अनुयोगद्वार के कर्ता आर्यरक्षित नियुक्ति की निक्षेप-पद्धति से प्रभावित रहे हैं, यह स्पष्ट है। कुछ विद्वान् अनुयोगद्वार को नियुक्ति से पूर्व की रचना मानते हैं। नियुक्ति-साहित्य के अंतर्गत निक्षेप-पद्धति के बारे में यह एक चिंतन का विषय है कि प्राय: शब्दों का एक समान निक्षेप करने से क्या नियुक्ति की महत्ता कम नहीं हुई? जैसे उत्तराध्ययननियुक्ति में प्राय: सभी अध्ययनों के प्रारम्भ में निक्षेपपरक दो-तीन गाथाएं हैं, जो सभी अध्ययनों की समान हैं। इन गाथाओं के स्थान पर यदि मूलसूत्र के महत्त्वपूर्ण शब्दों या विषयों की व्याख्या होती तो इसका महत्त्व और अधिक बढ़ जाता। गहराई से विमर्श करने पर प्रतीत होता है कि यह व्याख्या की विशिष्ट एवं वैज्ञानिक पद्धति रही। शब्द का सर्वांगीण ज्ञान कराने हेतु इसका प्रयोग किया जाता था, जिससे मंदबुद्धि शिष्य भी शब्द एवं अर्थ का सर्वतोमुखी ज्ञान करने में सक्षम हो सके। नियुक्तिकार ने निक्षेप के माध्यम से तात्कालीन सभ्यता, संस्कृति एवं परम्पराओं का भी निर्देश किया है जैसे सुत्त—सूत्र शब्द के निक्षेप में उस समय होने वाले अण्डज, पोंडज आदि विविध सूत्रों का ज्ञान कराया है। ब्रह्म शब्द के निक्षेप में स्थापना ब्रह्म के अंतर्गत उस समय की प्रचलित अनेक वर्ण एवं वर्णान्तर जातियों का उल्लेख है। इसी प्रकार कर्म, गुण, समय, अग्र, अंग, संयोग, धर्म, स्थान, करण आदि शब्दों के निक्षेप अनेक नई जानकारियां प्रस्तुत करते हैं। निक्षेप पद्धति से नियुक्तिकार ने केवल शब्द १. विभा ७३; जं वत्थुमत्थि लोए, चउपज्जायं तयं सव्वं । २. विभा ६०; अहवा वत्थुभिहाणं, णाम ठवणा य जो तदागारो। कारणया से दव्वं, कज्जावन्नं तयं भावो ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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