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रायपिंड - राजपिंड । मुद्धाभिसित्तस्स रण्णो भिक्खा रायपिंडो । मूर्धाभिषिक्त राजा की भिक्षा लेना राजपिंड है
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रायहाणी - राजधानी । रायहाणी जत्थ राया वसइ । जहां राजा रहता है, वह राजधानी है।
लक्खण - लक्षण । पच्चक्खमणुवलब्भमाणो जेणाणुमीयते अत्थि त्ति लक्खणं ।
(आचू. पृ. २८२)
जो प्रत्यक्ष में अनुपलब्ध है परन्तु जिस गुण से अस्तित्व का अनुमान किया जाता है, वह (दश अचू. पृ. ६६ )
लक्षण |
लाढ -संयमी । लाढयति प्रासुकैषणीयाहारेण साधुगुणैर्वात्मानं यापयतीति लाढः ।
जो प्रासुक एषणीय आहार से अथवा साधु-गुणों के द्वारा जीवन-यापन करता है, वह लाढ कहलाता है । (उशांटी.प. १०७)
लोम-रोम । लुनाति लूयंते वा तानि लीयंते वा तेषु यूका इति लोमानि ।
जिनको उखाड़ा जाता है, अथवा जिनमें जूं आदि रहते हैं, वे लोम-केश हैं। ( उचू. पू. १४२) लोह - लोभ । तृष्णापरिग्रहपरिणामो लोभः ।
तृष्णा और परिग्रह का परिणाम लोभ है।
(आटी. पृ. ११४)
वइसाह - वैशाख, योद्धा की मुद्रा विशेष । वइसाहं पहिओ अब्भितराहुत्तीओ समसेढीए करेति, अग्गिमतलो
बाहिराहुत्तो ।
वक्कसुद्धि - वाक्शुद्धि । जं वक्कं वदमाणस्स, संजमो सुज्झई न पुण हिंसा । न य अत्तकलुसभावो, तेण इहं वक्कसुद्धि त्ति ॥
निर्युक्तिपंचक
(दश अचू. पू. ६० )
दोनों एड़ियों को भीतर की ओर समश्रेणी में रखकर अग्रिम तल को बाहर रखना वैशाखस्थान है। (दचू. प. ४)
जिस वाक्य को बोलने से संयम की शुद्धि होती है, हिंसा नहीं होती, आत्मा में कलुषभाव नहीं आता, वह वाक्शुद्धि है। (दशनि. २६४)
वच्च
- वर्चस्, पाखाना । वच्वं नाम जत्थ वोसिरंति कातिकाइसन्नाओ ।
जहां मल और मूत्र का उत्सर्ग किया जाए, वे दोनों स्थान वर्चस् कहलाते हैं।
वच्छ - वृक्ष । पुत्ता इव रक्खिज्जंति वच्छा।
पुत्र की भांति जिनकी रक्षा की जाती है, वे वत्स (वृक्ष) हैं। वज्जभीरु - वज्रभीरु । वज्जभीरुणो णाम संसारभउव्विग्गा थोवमवि पावं णेच्छंति ।
वण्ण- लोकव्यापी यश । लोकव्यापी जसो वण्णो ।
लोकव्यापी यश वर्ण है ।
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(दशजिचू. पृ. १७७)
जो संसार के भय से उद्विग्न होकर थोड़ा भी पाप का सेवन नहीं करते, वे वज्रभीरु हैं ।
(दशजिचू. पृ. ९२ )
(दशअचू. पृ. २२७)
(दशअचू. पृ. ७)
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