SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० नियुक्तिपंचक ३१२. जो गृहस्थ का जीवन यापन करते हुए विषयों में आसक्त रहते हैं, ऋजुप्रज्ञ (भोले) व्यक्तियों के पास याचना करते हैं, वे द्रव्य भिक्षु हैं। तथा जो आजीविका के निमित्त दीन-कृपण अर्थात् कार्पटिक आदि भिक्षा के लिए घूमते हैं, वे भी द्रव्यभिक्षु हैं। ३१३. जो मिथ्यादृष्टि हैं, सदा पृथिवी आदि स्थावर जीवों तथा द्वीन्द्रिय आदि बस जीवों की हिंसा में रत रहते हैं, जो अब्रह्मचारी और संचयशील हैं, वे भी द्रव्यभिक्षु हैं । ३१४. जो द्विपद, चतुष्पद, धन, धान्य तथा कुप्य आदि को ग्रहण करने के लिए तीन करण और तीन योग से निरत हैं, जो सचित्तभोजी हैं, जो पचन-पाचन में रत हैं तथा जो उद्दिष्टभोजी हैं, वे द्रव्यभिक्ष हैं। ३१५. जो तीन करण और तीन योग से, अपने लिए, दूसरों के लिए अथवा दोनों के लिए, प्रयोजनवश या अप्रयोजनवश पाप कार्यों में प्रवत्त रहते हैं, वे द्रव्य भिक्ष हैं। ३१५३१. स्त्री-दासी आदि का ग्रहण करने से, आज्ञा-दान आदि भावसंग से--- परिणामी की अशुद्धि से और शुद्ध तपश्चरण का अभाव होने से कुतीथिक अब्रह्मचारी' हैं अर्थात अतपस्वी है। ३१६. भावभिक्षु दो प्रकार का होता है--- आगमतः और नोआगमतः । भिक्ष पदार्थ का ज्ञाता तथा उसमें उपयुक्त व्यक्ति आगमतः भावभिक्ष है। जो भिक्षगुण का संवेदक है, वह नो-आगमतः भावभिक्ष है। भिक्ष शब्द के तीन निरुक्त हैं-भेदक, भेदन और भेत्तव्य । 9. जाम , ३१७. आगमतः उपयुक्त मुनि भेदक है। दोनों प्रकार का तप-बाह्य और आभ्यन्तर भेदन (साधन) है और आठ प्रकार के कर्म भेत्तव्य है। आठ प्रकार के कर्मों का भेदन करने वाला भिक्ष होता है-यह भिक्ष का निरुक्त है। ३१८. कर्मों का भेदन करता हुआ मुनि भिक्षु होता है, संयम-गुणों में यतना करने वाला यति होता है। सतरह प्रकार के संयम का अनुष्ठान करने वाला संयम-चरक होता है। भव---संसार का अन्त करता हुआ वह भवान्त होता है। ३१९ भिक्षामात्रवृत्ति होने से मुनि भिक्षु कहलाता है। अण-- कर्मों का क्षय करने के कारण 'क्षपण', तथा तप-संयम में उद्यमशील होने से तपस्वी होता है। इस प्रकार भिक्ष के अन्यान्य पर्याय भी होते हैं। ३२०-३२२. तीर्ण, वायी, द्रव्य, व्रती, क्षान्त, दांत, विरत, मुनि, तापस, प्रज्ञापक, ऋजु, भिक्ष, बुद्ध, यति, विद्वान्, प्रव्रजित, अनगार, पाषण्डी, चरक, ब्राह्मण, परिव्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ, संयत, मुक्त, साधु, रूक्ष, तीरार्थी-ये तप-संयम में रत भावभिक्षु के पर्यायवाची नाम हैं । ३२३,३२४. संवेग, निर्वेद, विषय-परित्याग, सुशील-संसर्ग, आराधना, तप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय, क्षान्ति, मार्दव, आर्जव, विमुक्ति, अदीनता, तितिक्षा और आवश्यक-परिशुद्धि-ये भावभिक्ष के लिंग-चिह्न हैं। १. हाटी प० २६१ : अबह्मचारिण इति, ब्रह्मशब्देन शुद्धं तपोभिधीयते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy