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________________ दशवकालिक नियुक्ति २९९. हितभाषी, मितभाषी, अपरुषभाषी और अनुवीचिभाषी- यह वाचिक विनय है। अकुशल मन का निरोध और कुशल मन की उदीरणा (प्रवृत्ति) यह मानसिक विनय है। ३००. यह परानुवृत्यात्मक प्रतिरूप (उचित) विनय प्राय: छद्मस्थों के होता है और अप्रतिरूपविनय केवली के होता है। ३०१. यह तीन प्रकार का प्रतिरूपलक्षण विनय बताया गया है। अनाशातना विनय के बावन प्रकार हैं। ३०२,३०३. तीर्थंकर, सिद्ध, कुल, गण, संघ, क्रिया, धर्म, ज्ञान, ज्ञानी, आचार्य, स्थविर, उपाध्याय और गणी-ये तेरह पद अनाशातना, भक्ति, बहमान तथा वर्णसंज्वलना (सद्भूत गुणोत्कीर्तना)-इन चारों से गुणित होने पर बावन हो जाते हैं--१३४४=५२ । ३०४. द्रव्य स्वयं ही अथवा जिस द्रव्य से समाधि होती है वह द्रव्य अथवा जो द्रव्य तुला को सम करता है, वह द्रव्य द्रव्यसमाधि है । भावसमाधि के चार प्रकार हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप। दसवां अध्ययन : सभिक्षु ३०५. 'सकार' के चार निक्षेप हैं-नामसकार, स्थापनासकार, द्रव्यसकार और भावसकार । द्रव्यसकार प्रशंसा आदि विषयक होता है तथा भावसकार है-सकारोपयुक्त जीव । ३०६. निर्देश, प्रशंसा और अस्तिभाव-इन तीन अर्थों में 'सकार' का प्रयोग होता है। प्रस्तुत अध्ययन में निर्देश-सकार और प्रशंसा-सकार का अधिकार है। ३०७. तीर्थंकरों ने दशवकालिक सूत्र में जिन भावों को अनुष्ठेय बतलाया है, उनका अन्त तक आचरण करने वाला भिक्षणशील भिक्षु ही भिक्षु कहलाता है । ३०७११. चरक (परिव्राजक). मरुक (ब्राह्मण) आदि भिक्षोपजीवी व्यक्तियों का निरसन करने के लिए बताया गया है कि जो भिक्षु इस अध्ययन में अभिहित गुणों से युक्त होता है, वह सद्भिक्षु होता है । यहां 'सकार' प्रशंसा अर्थ में निर्दिष्ट है। ३०८. भिक्षु शब्द के निक्षेप, निरुक्त, एकार्थक, लिंग (संवेग आदि) तथा जो भिक्षु अगुणों में अवस्थित है, वह भिक्षु नहीं होता-ये सारे द्वार कथनीय हैं। इस प्रसंग में प्रतिज्ञा आदि पांच अवयवों का कथन भी होगा। ___३०९. भिक्षु शब्द के चार निक्षेप हैं - नामभिक्षु, स्थापनाभिक्षु, द्रव्यभिक्षु और भावभिक्षु । द्रव्यभिक्षु के दो भेद हैं-आगमतः द्रव्यभिक्षु तथा नो-आगमत: द्रव्यभिक्षु । द्रव्यभिक्षु का एक भेद और है, जो आगे कहा जा रहा है। ३१०. भेदक होता है पुरुष । भेदने का साधन होता है---परशु आदि । भेत्तव्य होता हैकाष्ठ आदि । इन तीनों की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा करूंगा। ३११. जैसे लकड़ी का काम करने वाला वर्धकी भेदन और भेत्तव्य से संयुक्त होकर द्रव्यभिक्षु कहलाता है उसी प्रकार अन्यान्य याचक तथा अविरत लोग भी द्रव्यभिक्षु हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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