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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं तुम्हारे पुत्र को देखा। उसे लेकर उसने अपनी महादेवी को दे दिया। वह पुत्र की भांति उसका लालनपालन कर रही है । यह सारी बात मैंने अपने विद्याबल के उपयोग से जान ली है। इसलिए हे सुतनु ! उद्वेग को छोड़कर धीरज करो। अपने मन को प्रसन्न करो। अपनी यौवनश्री को मेरे साथ रमणकर आनंदित करो।' यह सुनकर मदनरेखा ने सोचा- 'मेरे कर्मों की रेखा कितनी विचित्र है? मुझे नई विपत्तियों का सामना करना पड़ रहा है। अब मुझे क्या करना चाहिये? कामदेव से ग्रसित प्राणी कार्य और अकार्य का विवेक नहीं कर सकता। वह लोकापवाद की चिंता नहीं करता तथा परलोक का हित नहीं सोचता। इसलिए मुझे किसी भी अवस्था में शील की रक्षा करनी चाहिए।' ऐसा सोचकर उसने विद्याधर से कहा - 'आप मुझे नंदीश्वर द्वीप ले चलें। वहां जाकर मैं आपकी इच्छा पूरी करूंगी।' विद्याधर ने प्रसन्नमन से श्रेष्ठ विमान की विकुर्वणा की । मदनरेखा को उसमें बिठाकर वह नंदीश्वरद्वीप ले गया। मणिप्रभ और मदनरेखा दोनों विमान से उतरे और उन्होंने ऋषभ, वर्द्धमान, चन्द्रानन, वारिषेण आदि जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना की। उन्होंने मणिचूड़ चारण मुनि को भी वंदना की और उनके पास बैठ गये । मणिचूड़ चार ज्ञान के धारक थे। उन्होंने अपने ज्ञान के बल से मदनरेखा का वृत्तान्त जान लिया और धर्मकथा से मणिप्रभ को उपशान्त किया। मणिप्रभ ने मदनरेखा से अपने कृत्य के लिए क्षमा मांगी। मणिप्रभ ने कहा-' आज से तुम मेरी भगिनी हो । बोलो, अब मैं तुम्हारे लिए क्या करूं?' मदनरेखा ने कहा - ' आपने मुझे नंदीश्वर तीर्थ दिखला दिया अत: बहुत उपकार किया है।' मदनरेखा ने मुनिप्रवर से कहा- 'भगवन्! आप मुझे अपने पुत्र का वृत्तान्त बतायें ।' मुनि ने कहा- 'जंबूद्वीप के पूर्व विदेह के पुष्कलावती विजय में मणितोरण नामक नगर था। वहां अमितयश नामक चक्रवर्ती था । उसकी भार्या पुष्पवती से दो पुत्र उत्पन्न हुए - पुष्पसिंह और रत्नसिंह। वे दोनों चौरासी लाख पूर्व राज्य कर संसार के भय से उद्विग्न होकर चारण श्रमणों के पास प्रव्रजित हो गए। सोलह लाख पूर्व तक यथोचित श्रामण्य का पालन कर आयु-क्षय होने पर वे अच्युत कल्प में बावीस सागरोपम के आयुष्य वाले इन्द्र सामानिक देव बने । देव ऋद्धि का सुख भोगकर वहां से च्युत होकर धातकीखंड के अर्द्ध भरत में हरिषेण बलदेव की पत्नी समुद्रदत्ता के यहां पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। एक का नाम सागरदेव तथा दूसरे का नाम सागरदत्त रखा गया। राज्य श्री को असार जानकर बारहवें तीर्थंकर दृढ़ सुव्रत स्वामी के तीर्थ के अतिक्रान्त हो जाने पर आचार्य के पास दीक्षित हुए। दीक्षित होने के तीसरे दिन विद्युद्घात से वे दिवंगत हो गये। वे महाशुक्र देवलोक में उत्पन्न हुए। सतरह सागरोपम तक देव-सुख का अनुभव किया। बावीसवें तीर्थंकर के कैवल्यउत्सव पर वे वहां गए। वहां उन्होंने भगवान् से पूछा - 'यहां से च्युत होकर हम कहां उत्पन्न होंगे।' भगवान् ने कहा- 'एक मिथिला नगरी के राजा जयसेन के पुत्ररूप में तथा दूसरा सुदर्शनपुर युगबाहु राजा की पत्नी मदनरेखा के यहां पुत्र होगा । परमार्थतः वे पिता-पुत्र होंगे।' ऐसा सुनकर वे देव पुनः देवलोक में चले गये। के एक देव वहां से च्युत होकर मिथिला नगरी के राजा जयसेन की पत्नी वनमाला के यहां उत्पन्न हुआ । उसका नाम पद्मरथ रखा गया। जब वह युवा हुआ तो पिता ने उसे राजा बना दिया और स्वयं प्रव्रजित हो गया। उसकी पत्नी का नाम पुष्पमाला था। राज्य का पालन करते हुए बहुत समय व्यतीत हो गया । Jain Education International ५५५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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