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________________ ५३२ नियुक्तिपंचक चाणक्य ने चंद्रगुप्त से पूछा-'जिस समय मैंने तुम्हें जो कहा, क्या तुमने उस विषय में कुछ सोचा?' उसने कहा-'यही अच्छा हुआ। आप सब कुछ जानते हैं।' चाणक्य ने तब मन ही मन सोचा-'यह योग्य पुरुष है। यह कभी विपरिणत नहीं होता।' चन्द्रगुप्त क्षुधातुर हुआ। चाणक्य उसे एक स्थान पर बिठा, स्वयं भोजन की गवेषणा करने गया। उसके मन में यह भय था कि यहां हमें कोई पहचान न ले। चलते-चलते वह एक विप्र के घर पहुंचा। विप्र घर से बाहर गया हुआ था। उसके पुत्र को स्फेटित कर घर से दही मिश्रित ओदन लेकर चाणक्य चन्द्रगुप्त के पास आया और उसकी भख शांत की। एक बार वे घूमते-घूमते एक गांव में आए। उन्होंने देखा कि एक घर में वृद्धा ने बर्तन में अपने पुत्रों को तरल खाद्य पदार्थ परोसा है । एक पुत्र ने खाने के लिए बीच में हाथ डाला। उसका हाथ जल गया। वह रोने लगा। वृद्धा ने कहा-'चाणक्य के समान मूर्ख मेरे वत्स! तुम खाना भी नहीं जानते?' चाणक्य द्वारा कारण पूछने पर वृद्धा बोली-'गर्म चीज किनारे से खानी चाहिए फिर खाते-खाते मध्य तक पहुंचना होता है।' उस घटना से प्रेरणा लेकर चाणक्य हिमवंतकट में गया। वहां पर्वतक राजा से मैत्री की। चाणक्य ने कहा-'नंद राज्य को हम ग्रहण कर आधा-आधा बांट लेंगे।' पर्वतक ने चाणक्य की बात स्वीकार कर ली। उसने तैयारी प्रारम्भ कर दी। परन्तु एक भी नगर हस्तगत नहीं हो रहा था। त्रिदंडी परिव्राजक चाणक्य वहां गया। इन्द्रकुमारियों को देखा। उसने सोचा कि इनकी तेजस्विता के कारण नगर का पतन नहीं हो रहा है। उसने छल-कपट कर उन इन्द्रकुमारियों को वहां से बाहर निकाल दिया। नगर हस्तगत हो गया। फिर उसने पाटलिपुत्र नगर पर आक्रमण किया। नंद ने धर्मद्वार मांगा। चन्द्रगप्त ने कहा-'एक रथ में जितना ले जा सको ले जाओ।' नंद तब अपनी दो पत्नियों, एक कन्या तथा कुछ धन लेकर बाहर निकल गया। रथ में पलायन करते समय वह नंद-कन्या बार-बार चन्द्रगुप्त की ओर देखने लगी। तब नंद बोला-'जा त उसी के पास चली जा। वह नंद के रथ से उतरी और ज्योंहि चन्द्रगुप्त के रथ पर आरूढ़ हुई, उसी समय उस रथचक्र के नौ अर टूट गए। चन्द्रगुप्त ने अमंगल मानकर उसे निवारित करना चाहा। तब चाणक्य बोला-'अरे ! इसे मत रोको। नौ पुरुषयुगों तक तुम्हारा वंश चलेगा।' यह सुनकर चंद्रगुप्त ने उस नंदकन्या को स्वीकार कर लिया। वह उसके अंत:पुर में चली गई। __नंद राज्य के दो भाग कर दिए गए। एक भाग में एक विषकन्या रहती थी। महाराज पर्वतक से उस भाग की इच्छा की। उसे वह मिल गया। पर्वतक उस रूपवती विषकन्या के प्रेमजाल गया। अग्नि के स्पर्श की भांति विष के प्रभाव से वह मरने लगा। पर्वतक ने चंद्रगुप्त से कहा-'मित्र ! मैं मर रहा हूं।' चन्द्रगुप्त ने उसे विषमुक्त करने का प्रयत्न किया। तब चाणक्य ने भृकुटि तानकर इस नीतिवाक्य का स्मरण कराते हुए कहा तुल्याथ तुल्यसामर्थ्य, मर्मज्ञं व्यवसायिनम्। अर्द्धराज्यहरं भृत्यं, यो न हन्यात् स हन्यते॥ ... 'वत्स ! इस नीतिवचन को याद रखो। जिसका प्रयोजन समान हो अथवा ऐश्वर्य की समानता हो, जो समान बल वाला हो, मर्मज्ञ हो, पुरुषार्थ करने वाला हो, आधा राज्य लेने वाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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