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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण १०५ वैशेषिक दर्शन में दिशा को द्रव्य रूप में स्वीकार किया है लेकिन महावीर ने इसे आकाश विशेष के रूप में स्वीकार किया क्योंकि दिशाएं आकाश विशेष का ही एक भाग है । स्वरविज्ञान एवं ज्योतिष्विद्या में दिशाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दिशाओं के बारे में वैज्ञानिकों ने अपनी शोध प्रस्तुत की है कि दिशाओं के भी अपने विकिरण होते हैं, जो व्यक्ति के मानस को बहुत अंशों में प्रभावित करते हैं। भौगोलिक एवं दिशाओं की उत्पत्ति की दृष्टि से जैन आगम - साहित्य में जितनी सूक्ष्मता से चिंतन हुआ है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है । दिशाओं का वर्णन नियुक्तिकार के बाहुश्रुत्य को प्रकट करने वाला है। करण ज्योतिष्-शास्त्र में करण का महत्त्वपूर्ण स्थान है । सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययननियुक्ति में 'करण' का वर्णन मिलता है। वहां कालकरण के अंतर्गत ज्योतिष् में प्रसिद्ध 'करण' के ग्यारह भेद मिलते हैं— १. बव २. बालव ३. कौलव ४. स्त्रीविलोकन' ५. गरादि ६. वणिज ७ विष्टि ८. शकुनि ९ चतुष्पाद १०. नाग ११ किंस्तुघ्न । इनमें प्रथम सात चल तथा शेष चार स्थिर करण हैं । तिथि के अनुसार करण-चक्र एक तिथि में दो करण होते हैं अतः तिथि के आधे भाग को करण कहा जाता है। सूर्य से चन्द्रमा की प्रति ६ अंश की दूरी एक करण का बोधक है क्योंकि तिथि १२ अंश के अंतर पर होती है । चल करणों की एक माह में प्रत्येक की आठ बार आवृत्ति होती है । शकुनि आदि शेष चार स्थिर करण हैं, ये माह में केवल एक बार आते हैं। इनकी तिथियां और उनके भाग निश्चित होते हैं इसलिए ये ध्रुवकरण कहलाते हैं। कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के उत्तरखंड में सदा 'शकुनिकरण' होता है। अमावस्या के प्रथम अर्धभाग में ‘चतुष्पादकरण' और दूसरे अर्धभाग में 'नागकरण' होता है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के प्रथम अर्धभाग में 'किंस्तुघ्नकरण' होता | शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के उत्तरार्ध से बव, बालव, कौलव आदि करणों की क्रमश: आवृत्ति होती है। इस प्रकार हर महीने में लगभग ६० करण होते हैं । करण निकालने की विधि शुक्लपक्ष की तिथि को दो से गुणा करके उसमें दो घटाकर सात का भाग देने से जो शेष बचे, वह दिन का करण होता है । रात्रि में इसी विधि से एक जोड़ने पर वह रात्रि का करण होता है । जैसे शुक्लपक्ष की चतुर्थी का करण जानना है— ४x२=८ - २ = ६÷७ शेष ०=६ । अतः छठा करण वणिज होगा। रात्रि में एक बढ़ाने से इससे अगला करण विष्टि होगा । कृष्णपक्ष में २ को घटाया नहीं जाता, जैसे - कृष्णा दशमी में दो का गुणा करने पर २० होते हैं सात का भाग देने पर छह अवशेष रहते हैं अतः उस दिन वणिज नामक दैवसिक करण होगा । करण का समाप्ति काल जानने की विधि तिथि के प्रारम्भिक काल व समाप्ति काल के मध्य करण का समाप्ति काल होता है । तिथि के समाप्ति काल में से प्रारम्भिक काल घटाने पर तिथि का ठहराव घंटा मिनट में आ जाता है । इस १. स्त्रीविलोकन का दूसरा नाम तैत्तिल भी मिलता है । २. उनि १९०, १९१, सूनि ११, १२, जंबू ७/१२३ । Jain Education International ३. सूनि १३, उनि १९२ । ४. उनि १९२/१, विभा ३३४९ टी पृ. ६३९ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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