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________________ ६८ नियुक्तिपंचक नियुक्तिकार ने अनेक सूत्रगत अध्ययनों के अपर नामों का तथा कहीं-कहीं उन अध्ययनों के नामों की सार्थकता पर भी प्रकाश डाला है। जैसे सूत्रकृतांग के पन्द्रहवें अध्ययन का नाम यमकीय है। लेकिन नियुक्तिकार ने इस अध्ययन के आदानीय नाम की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा है कि इस अध्ययन के श्लोकों में प्रथम श्लोक का अंतिम पद दूसरे श्लोक का आदि पद है इसलिए इस अध्ययन का अपर नाम आदानीय है। चूर्णिकार ने इस अध्ययन का नाम संकलिका तथा वृत्तिकार ने संकलिका और यमकीय—इन दो नामों का उल्लेख किया है। उपमाओं एवं उदाहरणों से विषय का स्पष्टीकरण नियुक्तिकार की शैलीगत विशेषता है। देश और काल के अनुरूप उपमाओं से यह साहित्य समृद्ध है, जिससे गंभीर विषय भी सरस, सरल एवं वेधक बन गए हैं। दशवैकालिक नियुक्ति में भिक्षु को अनेक उपमाओं से उपमित किया है। उसमें अधिकांश उपमाएं प्राणिजगत् से संबंधित हैं। नियुक्तिगत उपमाओं का संकलन परि. सं. ८ में समाविष्ट है। न्याय और दर्शन जैसे गहन विषय को सरलता से समझाने के लिए नियुक्तिकार ने अनेक कथाओं का प्रयोग किया है। कुछ कथाएं सामाजिक परिवेश को प्रस्तुत करने वाली हैं तो कुछ राज्य-व्यवस्था एवं राजनीति से संबंधित हैं। कुछ कथाएं साध्वाचार से संबंधित हैं तो कुछ लोक-व्यवहार के साथ जुड़ी हुई हैं। अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का संकेत भी नियुक्तिकार ने किया है। आषाढ़भूति की कथा को नियुक्तिकार ने रूपक के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है। पृथ्वीकाय आदि स्थावरकायों ने कथा के माध्यम से अपने बारे में सुंदर अभिव्यक्ति दी है। आचारांग नियुक्ति की सकुंडलं वो वयणं न व त्ति—इस पाद की पूर्ति करने वाली कथा उस समय की सांस्कृतिक एवं धार्मिक स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। उत्तराध्ययन नियुक्ति की अनेक कथाएं कुछ परिवर्तन के साथ महाभारत और जातक कथा में भी मिलती हैंउत्तराध्ययननियुक्ति महाभारत जातक १. हरिकेशबल मातंग (सं. ४९७) २. चित्र-संभूत चित्त-संभूत (सं. ४९८) ३. भृगु पुरोहित शांति पर्व, अ. १७५, २७७ हस्तिपाल (सं. ५०९) ४. नमि-राजर्षि शांति पर्व, अ. १७८, २७६ महाजन (सं. ५३९) X महाभारत में जैसे अनेक स्थलों पर प्रश्नोत्तर के रूप में तत्त्व का निरूपण है, वैसे ही नियुक्तिकार ने अनेक स्थलों पर प्रश्नोत्तर शैली को अपनाया है। नियुक्ति में प्रश्न और उत्तर दोनों ही बहुत संक्षिप्त शैली में हैं। जैसे अंगाणं किं सारो, आयारो तस्स किं हवति सारो। अणुयोगत्थो सारो, तस्स वि य परूवणा सारो।। (आनि १६) १. सूनि १३३। २. सूचू १ पृ. २३८, सूटी पृ. १६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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