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नियुक्तिपंचक
कुछ दिनों बाद आचार्य सागर ने कालकाचार्य से पूछा-गुरुदेव! मैं वाचना कैसी देता हूँ? आचार्य ने कहा-वाचना तो सुन्दर देते हो लेकिन इसके साथ गर्व मत करना। क्या पता कब-कौन सुनने आ जाए। आचार्य ने धूलिपुंज के दृष्टान्त से प्रतिबोध दिया कि जैसे अंजलि से भरी धूलि कुछ न कुछ कम होती जाती है, वैसे ही तीर्थंकर द्वारा प्रदत्त ज्ञान भी कम होता जाता है । परम्परागत होने से इसके कितने ही पर्यायों का क्षरण हो जाता है। इसी प्रकार कीचड़ पिंड को भिन्न-भिन्न स्थान पर रखने से वह कम होता जाता है। इन दोनों उदाहरणों को हृदयंगम कर प्रज्ञा का मद नहीं करना चाहिए। आर्य कालक ने समतापूर्वक प्रज्ञा परीषह सहन किया। ज्ञात होने पर भी अपने प्रशिष्य से वाचना लेते रहे लेकिन अपने आपको प्रकट नहीं किया। २३. अज्ञान परीषह
गंगा के किनारे दो भाई रहते थे। दोनों भाइयों ने विरक्त होकर मुनि दीक्षा स्वीकार कर ली। उनमें एक भाई बहुश्रुत हो गया तथा दूसरा अल्पश्रुत ही रहा। बहुश्रुत मुनि साधुओं को अध्यापन कराता था। उसे अनेक बार वाचना देनी पड़ती। दिन में वह अध्यापन में व्यस्त रहता तथा रात्रि में भी वह अच्छी तरह सो नहीं पाता। एक दिन नींद के कारण परेशान होकर बहुश्रुत आचार्य ने चिंतन किया- 'अहो ! मेरा भाई कितना भाग्यशाली है, जो आराम करता रहता है और रात्रि में भी अच्छी तरह सोता है। मैं कितना मंदपुण्य हूं कि अच्छी तरह सो भी नहीं सकता।' इस चिंतन से उनके सघन ज्ञानावरणीय कर्म का बंध हुआ। चिन्तन की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना ही वे स्वर्गस्थ हो गए।
कालान्तर में वे देवलोक से च्युत होकर एक ग्वाले के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। क्रम से बालक बड़ा हुआ। यौवन आने पर माता-पिता ने एक सुन्दर कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया। उसके एक अत्यन्त सुन्दर पुत्री थी। एक बार दोनों-पिता और पुत्री दूसरे ग्वालों के साथ घी की गाड़ी भरकर बेचने जा रहे थे। उस गाड़ी को वह कन्या हांक रही थी। अन्य ग्वालों के लड़के उसके रूप पर आसक्त हो गए और वे भी अपनी बैलगाड़ियां उसके बराबर चलाने लगे। गाड़ी चलाते हुए वे उसको बार-बार देख रहे थे। इस असंतुलन के कारण शकट उत्पथ में चलने लगे। वे सब टूट गए। इस वारदात से उन्होंने लड़की का नाम असगडा (अशकटा) रख दिया। उसका पिता असगडपिता के नाम से प्रसिद्ध हो गया। इस घटना से ग्वाले को वैराग्य हो गया। उसने अपनी लडकी का विवाह कर दिया। घर की सारी सम्पत्ति उसे देकर वह दीक्षित हो गया। दीक्षित होकर उसने उत्तराध्ययन के तीन अध्ययन तो सीख लिए लेकिन चौथा अध्ययन सीखते हुए पूर्वबद्ध ज्ञानावरणीय कर्म उदय में आ गया। मुनि ने बहुत प्रयत्न किया लेकिन सफलता नहीं मिली। मुनि ने आचार्य को निवेदन किया। आचार्य ने सारी बात बताकर कहा कि अभी तुम्हारे ज्ञानावरणीय कर्म का उदय है अतः जब तक कर्म क्षीण न हो तब तक आयम्बिल करते रहो। मुनि अदीन भाव से आयम्बिल करने लगे। इस प्रकार उसने बारह वर्षों तक अदीन भाव से आयम्बिल किया और उतने काल में उत्तराध्ययन का केवल चौथा अध्ययन 'असंखयं' सीखा। इस प्रकार उनका ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण हो गया। उसके बाद वे बहुत ज्ञान प्राप्त करने लगे। १. उनि.१२०, उशांटी. प. १२७, १२८, उसुटी.प. ५०। २. उनि.१२१ उशांटी.प. १२९, १३०, उसुटी.प. ५१ ।
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