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________________ ८६ निर्युक्तिपंच था।' वैदिक परम्परा की इस मान्यता का जैन पुराण- साहित्य पर स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है । महापुराण एवं पद्मपुराण के अनुसार ऋषभदेव ने भुजाओं में शस्त्र धारण कर क्षत्रियों की सृष्टि की, ऊरुओं से देशाटन कर वैश्यों की रचना की क्योंकि वैश्य विभिन्न देशों की यात्रा कर व्यापार द्वारा आजीविका चलाते थे। शूद्रों की रचना पैरों से की क्योंकि वे सदा नीच वृत्ति में तत्पर रहते थे । ऋषभ के पुत्र भरत मुख से शास्त्रों का अध्ययन कराते हुए ब्राह्मणों का सृजन किया। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि चारों वर्णों की सृष्टि गुण और कर्म के आधार पर मैंने की है। इनका विनाश भी मेरे हाथ में है । निर्युक्तिकार के अनुसार भगवान् ऋषभ के राज्यारूढ़ होने से पूर्व एक ही (क्षत्रिय) जाति थी । ऋषभ के राजा बनने के बाद फिर क्रमश: शूद्र, वैश्य और श्रावक धर्म का प्रवर्त्तन करने पर ब्राह्मणों की उत्त्पत्ति हुई। टीकाकार ने नियुक्तिकार की संवादी व्याख्या की है किन्तु चूर्णिकार का मत नियुक्तिकार से भिन्न है। उनके अनुसार ऋषभदेव के समय जो उनके आश्रित थे, वे क्षत्रिय कहलाए । बाद में की खोज होने पर उन गृहपतियों में जो शिल्प और वाणिज्य का कर्म करने वाले थे, वे वैश्य कहलाए । भगवान् के दीक्षित होने पर भरत के राज्याभिषेक के बाद भगवान् के उपदेश से श्रावक धर्म की उत्पत्ति हुई। धर्मप्रय थे तथा 'मा हण' 'मा हण' रूप अहिंसा का उद्घोष करते थे अत: लोगों ने उनका नाम माहण— ब्राह्मण रख दिया । जो न भगवान् के आश्रित थे और न किसी प्रकार का शिल्प आदि करते थे, वे अश्रावक शोक एवं द्रोह स्वभाव से युक्त होने के कारण शूद्र कहलाए। शूद्र का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ शू अर्थात् शोक स्वभाव युक्त तथा द्र अर्थात् द्रोह स्वभाव युक्त किया है । " चूर्णिकार द्वारा किए गए क्रम-परिवर्तन में एक कारण यह संभव लगता है कि चूर्णिकार पर वैदिक परम्परा का प्रभाव पड़ा है। पद्मपुराण के अनुसार भगवान् ऋषभदेव ने जिन पुरुषों को विपत्तिग्रस्त मनुष्यों के लिए नियुक्त किया, वे क्षत्रिय कहलाए । जिनको वाणिज्य, खेती एवं पशुपालन आदि के व्यवसाय में लगाया, वे वैश्य कहलाए । जो निम्न कर्म करते थे तथा शास्त्रों से दूर भागते थे, उन्हें शूद्र संज्ञा से अभिहित किया गया। महापुराण में भी इसका संवादी वर्णन है । वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के बारे में मुख्य रूप से पांच सिद्धांत प्रचलित हैं - १. देवी सिद्धांत २. गुण सिद्धांत ३. कर्म सिद्धांत ४. वर्ण एवं रंग का सिद्धांत ५ जन्म का सिद्धांत | वर्णसंकर जातियां चार वर्णों के बाद अनेक जातियां तथा उपजातियां उत्पन्न हुईं। इसका कारण अनुलोम- प्रतिलोम विवाह थे । महापुराण के अनुसार वर्णसंकर उत्पन्न करने वाले दंड के पात्र होते थे । ९ संयोग के आधार पर १६ जातियां उत्पन्न हुईं, जिनमें सात वर्ण तथा नौ वर्णान्तर कहलायीं ।" ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, क्षत्रियसंकर", वैश्यसंकर १२ और शूद्रसंकर ये सात वर्ण हैं । इन सात वर्णों में अंतिम तीन १. ऋग्वेद १०/९०/१, २; सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् ।। २. महापु. १६/२४३-४६, पद्म ५ / १९४,१९५ । ३. गीता ४ / १३; चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ४. आनि १९ । ५. आचू पृ. ४, ५ । Jain Education International । ६. पद्म ३/२५६-५८, हरि. ९/३९ । ७. महापु. १६/१८३ । ८. विस्तार हेतु देखें प्राचीन भारतीय संस्कृति पृ. ३८४-९६ । ९. महापु. १६ / २४८ । १०. आनि २० । ११. ब्राह्मण तथा क्षत्रिय स्त्री से उत्पन्न । १२. ब्राह्मण तथा वैश्य स्त्री से उत्पन्न । १३. क्षत्रिय और शूद्र स्त्री से उत्पन्न । For Private & Personal Use Only --www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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