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________________ ३८ नियुक्तिपंचक दूसरी चूला सप्तसप्तिका, प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा से तीसरी चूला भावना तथा छठे धुत अध्ययन के दूसरे और चौथे उद्देशक से चौथी विमुक्ति चूला निर्मूढ है। पंचम चूला आचारप्रकल्प—निशीथ का निर्वृहण प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु के आचार नामक बीसवें प्राभृत से हुआ। इस प्रकार आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध से आचारचला का संग्रहण हआ है। ऐतिहासिक किंवदंती के अनुसार आचारचूला की तीसरी और चौथी चूला स्थूलिभद्र की बहिन साध्वी यक्षा महाविदेह क्षेत्र से सीमंधरस्वामी के पास से लाई थी। साध्वी यक्षा ने वहां से चार चूलाएं ग्रहण की थीं, उनमें दो दशवैकालिक के साथ तथा दो आचारांग के साथ जोड़ी गयीं। डॉ० हर्मन जेकोबी के अनुसार आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध में गद्य के मध्य आने वाले पद्य उस समय के प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथों से उद्धत किए गए हैं। रचनाकाल __आचारांगनियुक्ति के अनुसार तीर्थ-प्रवर्तन के समय सर्वप्रथम आचारांग की रचना हुई, उसके बाद अन्य अंगों की। चूर्णिकार जिनदासगणी भी इस मत से सहमत हैं। एक अन्य मत का उल्लेख करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि आचारांग में स्थित होने पर ही शेष अंगों का अध्ययन किया जाता है इसीलिए इसका प्रथम स्थान रखा है। नंदीचूर्णि के अनुसार पहले पूर्वगत की देशना हुई इसलिए इनका नाम पूर्व पड़ा । बाद में गणधरों ने आचारांग को प्रथम क्रम में व्यवस्थित किया। आचार्य मलयगिरि ने भी स्थापना क्रम की दृष्टि से आचारांग को प्रथम अंग माना है न कि रचना के कम से।' मतान्तर प्रस्तुत करते हुए नंदी के चूर्णिकार कहते हैं कि तीर्थकरों ने पहले पूर्वो की देशना की और गणधरों ने भी पूर्वगत सूत्र को ही सर्वप्रथम ग्रथित किया। आचारांगनियुक्ति और नंदीचूर्णि की विसंगति का परिहार करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ का मानना है कि संभव है नियुक्तिकार ने अंगों के निर्वृहण की प्रक्रिया का यह कम मान्य किया हो कि सर्वप्रथम आचारांग का नि!हण और स्थापन होता है तत्पश्चात् सूत्रकृत आदि अंगों का। इस संभावना को स्वीकार कर लेने पर दोनों धाराओं की बाह्य दूरी रहने पर भी आंतरिक दूरी समाप्त हो जाती है ।१० वस्तुत: आचारांग को प्रथम स्थान देने का कारण नियुक्ति में यह बताया है कि इसमें मोक्ष का उपाय वर्णित है तथा इसे प्रवचन का सार कहा गया है। भाषा-शैली की दृष्टि से भी यह आगम प्राचीन प्रतीत होता है। १. आनि ३०८-११, पंकभा २३ । २. परिशिष्ट पर्व ९/९७, ९८ । ३. The sacred books of the east, vo. xx ii introduction p. 48 5 आनि ८। ५. आचू पृ.३ सव्वतित्थगरा वि आयारस्स अत्थं पढमं आक्खंति, ततो सेसगाणं एक्कारसण्हं अंगाणं । ६. आचू प्र. ४; तत्थ ठितो सेसाणि अंगाणि अहिज्जइ तेण सो पढम कतो। ७. नंदीचूर्णि पृ. ७५ । ८. नंदीमटी प. २११; स्थापनामधिकृत्य प्रथममङ्गम्। ९. नंदीचूर्णि पृ. ७५ । १०. आचारांगभाष्यम्, भूमिका पृ. १७ । ११. आनि ९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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