SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 767
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियुक्तिपंचक को टालने के लिए असांभोजिक मुनि को जागरूक करना तथा कर्मादान से विषण्ण गृहस्थ को जागरूक करना उपेक्षा संयम है। (दशअचू. पृ. १२) उस्सूलग-खाई। उस्सूलगा णाम खातिआ उवाया जत्थ परबलाणि पडंति। वह परिखा, जहां शत्रुसेना गिर पड़ती है, उसे उस्सूलक कहते हैं। (उचू. पृ. १८२) एग-शुद्ध आत्मा। एगो णाम रागद्दोसरहितो। एक अर्थात् राग-द्वेष रहित शुद्ध आत्मा। (उचू. पृ. ६६) एगचर-एकचर। एकचरो नाम एक एवासौ चरति, न तस्य सहायकृत्यमस्ति। जो अकेला चलता है, जिसका कोई सहयोगी नहीं होता, वह एकचर है। (सूचू.१ पृ. १०६) ओगाहरुइ-अवगाढ़रुचि। ओगाहरुई नाम अणेगनयवायभंगुरं सुयं अत्थओ महता संवेगमावजइ एस ओगाहरुई। जो अनेक नय और वादों-विकल्पों से युक्त गंभीर श्रुत के अर्थ को तीव्र संवेग से ग्रहण करता है, वह अवगाढ़रुचि कहलाता है। (दशजिचू. पृ. ३४) ओय-शुद्ध। रागद्दोसविरहितं चित्तं ओअं ति भन्नति सुद्ध। जिसका चित्त राग-द्वेष से शून्य है, जो शुद्ध है, वह ओज कहलाता है। (दचू. प. २७) ओस्सा-ओस। सरयादौ णिसि मेघसंभवो सिणेहविसेसो तोस्सा। शरद्काल की रात्रि में मेघोत्पन्न स्नेह-विशेष को ओस कहते हैं। (दशअचू. पृ. ८८) कंदण-क्रन्दन। कंदणं महता सद्देण विरवणं संपओग-विप्पओगत्थं। संयोग और वियोग के लिए जोर-जोर से चिल्लाना क्रन्दन है। (दशअचू. पृ. १७) कप्पित-कल्पित। कप्पितं असब्भूतमवि अत्थसाहणत्थमुपपादिज्जति। असद्भूत अर्थ की सिद्धि के लिए किया जाने वाला प्रयत्न कल्पित है। ___ (दशअचू. पृ. २१) कब्बड-छोटा गांव। कब्बडं कुणगरं जत्थ जलत्थलसमुब्भवविचित्तभंडविणियोगो णत्थि। जहां जल और स्थल कहीं से भी क्रय-विक्रय नहीं होता, वह कर्बट कहलाता है। (दशजिचू. पृ. ३६०) • कब्बडं णाम धुल्लओ जस्स पागारो। वह गांव, जहां धूल का प्राकार हो, कर्बट कहलाता है। (आचू. पृ. २८१) कम्मपुरुष-कर्मपुरुष। कम्मपुरुषो नाम यो हि अतिपौरुषाणि कम्माणि करेति। ह व्याक्त है, जो अति पौरुषेय कार्य करता है। (सूचू.१ पृ. १०२) करग-ओला। वरिसोदगं कढिणीभूतं करगो। आकाश से गिरने वाले उदक के कठिन भाग को करक-ओला कहते हैं। (दशअचू.पृ. ८८) कलह-कलह । कलाभ्यो हीयते येन स कलहः। जिससे सारी कलाएं क्षीण हो जाती हैं, वह कलह है। (उचू. पृ. १७१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy