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________________ २९० निर्युक्तिपंचक ३८. संज्ञा के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य संज्ञा है-सचित्त आदि । भाव संज्ञा के दो प्रकार हैं- अनुभवसंज्ञा तथा ज्ञानसंज्ञा । मतिज्ञान आदि पांच ज्ञान ज्ञान संज्ञाएं हैं। अनुभवसंज्ञा अपने किए हुए कर्मों के उदय से उत्थित होती है । ३९. अनुभव संज्ञा के सोलह प्रकार हैं- १. आहारसंज्ञा, २. भयसंज्ञा, ३. परिग्रहसंज्ञा, ४. मैथुनसंज्ञा, ५. सुखसंज्ञा, ६. दुःखसंज्ञा, ७ मोहसंज्ञा, ८. विचिकित्सा संज्ञा, ९. क्रोधसंज्ञा, १०. मानसंज्ञा, ११. मायासंज्ञा, १२. लोभसंज्ञा, १३ शोकसंज्ञा, १४. लोकसंज्ञा', १५. धर्मसंज्ञा, १६. ओघसंज्ञा * । ४०. दिशा शब्द के सात निक्षेप ज्ञातव्य हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, ताप, प्रज्ञापक तथा भाव । ४१. द्रव्यदिग् तेरह प्रदेशात्मक होती है तथा तेरह आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ होती है । जो द्रव्य दश दिशाओं के उत्थान का कारण है, वह द्रव्यदिशा है । ४२. तिर्यग् लोक के मध्य में अष्ट प्रदेशात्मक रुचक प्रदेश हैं ।" वे ही दिशाओं और अनुदिशाओं के उत्पत्ति-स्थल हैं । ४३. ऐन्द्री (पूर्व), आग्नेयी, याम्या (दक्षिण), नैऋती, वारुणी (पश्चिम), वायव्वा, सोमा (उत्तर), ईशानी, विमला (ऊर्ध्व), तमा ( अध: ) - ये दश दिशाएं हैं । ४४. द्विप्रदेशात्मिका चार महादिशाएं दो-दो प्रदेशों की वृद्धिसहित होती हैं।" चार विदिशाएं एक प्रदेशात्मिका होती हैं और वृद्धिरहित होती हैं । ऊर्ध्व और अधः- ये दो दिशाएं चार आकाश प्रदेशात्मिका होती हैं । ये भी वृद्धिरहित होती हैं । ४५. सभी दिशाएं मध्य में आदि सहित हैं तथा बाह्यपार्श्व में अपर्यवसित - अन्तरहित हैं । ( बाह्य भाग में अलोकाकाश के आश्रय से अपर्यवसित हैं । सब दिशाएं उत्कृष्टतः अनन्त प्रदेशात्मिका हैं। सभी दिशाओं की आगमिक संज्ञा कडजुम्म" ( कृतयुग्म ) है । ४६. चार महादिशाएं शकटोद्धि के संस्थान वाली होती हैं । चार विदिशाएं मुक्तावलि के आकार वाली तथा ऊंची और नीची- ये दो दिशाएं रुचक के समान आकार वाली होती हैं। १. मननं मतिः - अवबोधः सा च मतिज्ञानादि पंचधा । तत्र केवलसंज्ञा क्षायिकी, शेषास्तु क्षायोपशमिक्य: । ( आटी पृ८) २. चित्तविप्लुति । ३. लौकिक आचार-व्यवहार । ४. अव्यक्त उपयोग -- वल्लरी का वृक्ष पर चढ़ना । ५. तिर्यक्लोक के मध्य में रत्नप्रभापृथिवी के ऊपर बहुमध्यदेश भाग में मेरु पर्वत के अन्तर दो सर्व क्षुल्लक प्रतर हैं । उनके ऊपर तथा नीचे चार-चार प्रदेश हैं । यह आठ आकाश Jain Education International प्रदेशात्मक चतुष्कोण रुचक प्रदेश हैं । ६. मेरु के मध्य अष्टप्रदेशी रुचक हैं। वहां चार दिशाओं में से प्रत्येक दिशा के प्रारंभ में दो-दो प्रदेश निकलते हैं, फिर चार-चार, छह-छह, आठ-आठ - इस प्रकार दो-दो के क्रम से उनकी वृद्धि होती जाती है । ७. आटी ९: सर्वासां दिशां प्रत्येकं ये प्रदेशास्ते चतुष्क के नापह्रियमाणाश्चतुष्कावशेषा भवन्तीति कृत्वा तत्प्रदेशात्मिकाश्च दिश आगमसंज्ञया कडजुम्मत्ति शब्देनाभिधीयन्ते । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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