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________________ निर्युक्तिपंचक चार विदिशाओं की आदि भी मेरु पर्वत के रुचक प्रदेशों से होती है। इनकी आदि एक प्रदेश से होती है तथा आगे भी अलोक तक ये एक प्रदेश विस्तीर्ण ही होती हैं । इनके प्रदेशों में वृद्धि नहीं होती । सम्पूर्ण लोक की अपेक्षा से ये असंख्येय प्रदेशात्मिका तथा सादि सपर्यवसित होती हैं । अलोक की अपेक्षा अनंत प्रदेशात्मिका तथा सादि अपर्यवसित होती हैं । एक प्रदेशात्मिका होने के कारण ये छिन्न मुक्तावलि के आकार वाली होती हैं ।' विमला और तमा का वर्णन भी दिशा और विदिशाओं की भांति ही है । अंतर केवल इतना है कि इनकी उत्पत्ति चार प्रदेशों से होती है। ये दोनों दिशाएं चतुरस्र दण्डाकार होती हैं अत: इनका संस्थान रुचक प्रदेशों जितना है । भगवती के अनुसार ऐन्द्री आदि चार महादिशाएं जीव के देश रूप तथा प्रदेश रूप हैं पर आग्नेयी आदि चार विदिशाएं एक प्रदेशात्मिका होने के कारण जीव रूप नहीं हैं क्योंकि जीव का अवगाह असंख्यात प्रदेशों में ही संभव है। नियुक्तिकार ने संक्षेप में भगवती सूत्र का संवादी वर्णन किया है । ४ १०२ संस्थान के बारे में चर्चा करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि सभी दिशाएं मध्य में आदि सहित तथा बाह्य पार्श्व में अपर्यवसित — अंतरहित होती हैं। बाह्य भाग में अलोकाकाश के कारण अपर्यवसित होती हैं। इन सभी दिशाओं की आगमिक संज्ञा 'कडजुम्म' है ।' भगवती सूत्र में चार महादिशाओं का लोक और अलोक की अपेक्षा से अलग-अलग संस्थान का उल्लेख किया है जबकि नियुक्तिकार ने इन्हें केवल शकटोर्द्धि-गाड़ी की उद्धि ( ओढण) संस्थान वाला बताया है । विदिशाओं तथा ऊर्ध्व और अधः दिशाओं के संस्थान भगवती सूत्र जैसे ही हैं। तापदिशा सूर्य के आधार पर जिन दिशाओं का निर्धारण होता है, वे तापदिशाएं कहलाती हैं। आवश्यकनिर्युक्ति में तापदिशा के स्थान पर तापक्षेत्रदिशा का उल्लेख मिलता है। सूर्य की किरणों के स्पर्श से उत्पन्न प्रकाशात्मक परिताप से युक्त क्षेत्र तापक्षेत्र कहलाता । उससे सम्बन्धित दिशाएं तापक्षेत्रदिशा कहलाती हैं। ये दिशाएं सूर्य के अधीन होने के कारण अनियत होती हैं । ' जिस क्षेत्र में जिस ओर सूर्य उदित होता है, उस क्षेत्र के लिए वह पूर्व दिशा है । जिस ओर सूर्य अस्त होता है, वह पश्चिम दिशा है। उसके दक्षिण पार्श्व में दक्षिण दिशा तथा उत्तर पार्श्व में उत्तर दिशा है। ऐरवत, पूर्वविदेह, अपरविदेह में निवासी मनुष्यों के उत्तर प्रज्ञापक दिशा कोई प्रज्ञापक जहां कहीं स्थित होकर दिशाओं के आधार पर किसी को निमित्त अथवा सूत्रार्थ का कथन करता है, वह जिस ओर अभिमुख है, वह पूर्व दिशा है। उसकी पीठ के पीछे वाली पश्चिम दिशा १. भ. १३/५३ । २ भ. १३/५४ । ३. भ. १०/५, ६ । ४ आनि ४४ । ५. आनि ४५ । ६. आनि ४६ । ७. आवनि ८०९; खेत्तदिसा तावखेत्त पन्नवए । ये चार तापदिशाएं कहलाती हैं । भरत, मेरु तथा दक्षिण में लवण समुद्र है । १० Jain Education International ४३९; तपनं तापः सूर्यकिरणस्पर्शाज्जनितः परितापः तदुपलक्षितं क्षेत्रं तापक्षेत्रं तदेव तापयतीति तापः सविता तदनुसारेण क्षेत्रात्मिका दिक् तापक्षेत्रदिक् सा च सूर्यायत्तत्वादनियता । ८. आमटी प प्रकाशात्मकः दिक्, अथवा ९. आनि ४७, ४८, विभा २७०१ । १०. आनि ५०, आवमटी प. ४३९ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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