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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५८३ मुनि संभूत के पैरों को छू गए। मुनि संभूत को अपूर्व आनंद का अनुभव हुआ। उसने निदान करने का विचार किया। मुनि चित्र ने ज्ञानशक्ति से यह जान लिया और सोचा- 'अहो ! मोहकर्म कितना दुर्जेय है? इन्द्रियां कितनी दुर्दान्त हैं? विषयों का उन्माद कितना भयंकर है? इन कारणों से तप और चारित्र में संलग्न तथा जिनेन्द्र भगवान् के वचनों का ज्ञाता यह मुनि सम्भूत युवती के केशों के स्पर्श मात्र से ऐसा अध्यवसाय कर रहा है। प्रतिबोध देते हुए मुनि चित्र ने कहा-'इस अशुभ अध्यवसाय से निवृत्त हो जाओ। ये कामभोग असार और दारुण विपाक वाले हैं। परमार्थतः ये दुःखरूप हैं। जैसे खुजली करने वाला बाद में दुःख पाता है वैसे ही मोहातुर व्यक्ति भी दु:ख को सुखरूप मानता है।' मुनि चित्र ने आगे कहा-'तुम तो आगम के परमार्थ को जानने वाले हो अत: इसमें मूर्च्छित मत बनो।' इस प्रकार अनुशासित करने पर भी वह प्रतिबुद्ध नहीं हुआ। मुनि सम्भूत ने निदान किया कि यदि मेरी तपस्या का फल है तो मैं अगले जन्म में चक्रवर्ती बनं। दोनों मुनियों का अनशन चालू था। वे मरकर सौधर्म देवलोक में देव बने। वहां का आयुष्य पूरा कर चित्र का जीव पुरिमताल नगर में एक इभ्य सेठ का पुत्र बना और संभूत का जीव कांपिल्यपुर में ब्रह्म राजा की रानी चुलनी के गर्भ में आया। रानी ने चौदह महास्वप्न देखे। बालक का जन्म हुआ। उसका नाम ब्रह्मदत्त रखा गया। बालक अनेक कलाओं को सीखते हुए बढ़ने लगा। राजा ब्रह्म के चार मित्र थे-1. काशी देश का अधिपति कटक 2. गजपुर का राजा करेणुदत्त 3. कौशल देश का राजा दीर्घ और 4. चम्पा देश का अधिपति पुष्पचूल। राजा ब्रह्म का इनके साथ अगाध प्रेम था। एक दूसरे का विरह न सहने के कारण वे सभी एक-एक वर्ष दूसरे के राज्य में रहते थे। एक बार वे सब राजा ब्रह्म के राज्य में समुदित हो रहे थे। अचानक राजा ब्रह्म के असह्य मस्तक-वेदना उत्पन्न हुई। मंत्र, तंत्र, औषधि आदि के प्रयोग से भी वेदना में अंतर नहीं आया। स्थिति चिंताजनक बन गई। राजा ब्रह्म ने कटक आदि राजाओं को बुलाया और अपने पुत्र ब्रह्मदत्त को चारों मित्रों को सौंपते हुए कहा-'इसका राज्य तुम्हें चलाना है।' मित्रों ने स्वीकार कर लिया। कुछ काल बाद राजा ब्रह्म की मृत्यु हो गई। मित्रों ने उसका अन्त्येष्टि-कर्म किया। उस समय कुमार ब्रह्मदत्त छोटी अवस्था में था। चारों मित्रों ने विचार-विमर्श कर कौशल देश के राजा दीर्घ को राज्य का सारा भार सौंपा और बाद में सब अपने-अपने राज्य की ओर चले गये। राजा दीर्घ राज्य की व्यवस्था करने लगा। सर्वत्र उसका प्रवेश होने लगा। वह रानी चुलनी के साथ मंत्रणा करने लगा। उसका धीरे-धीरे रानी चुलनी के साथ प्रेमबंधन गाढ़ होता गया। दोनों नि:संकोच विषयवासना का सेवन करने लगे। रानी के इस दुराचार को जानकर राजा ब्रह्म का विश्वस्त मंत्री धनु चिन्ताग्रस्त हो गया। ने सोचा-'जो व्यक्ति अधम आचरण में फंसा हआ है, वह भला कमार ब्रह्मदत्त का क्या हित साध सकेगा?' उसने रानी चुलनी और राजा दीर्घ के अवैध सम्बन्ध की बात अपने पुत्र वरधनु के द्वारा कुमार तक पहुंचाई। कुमार को यह बात बहुत बुरी लगी। उसने एक उपाय ढूंढा। एक कौवे और एक कोकिल को पिंजरे में बंद कर अन्त:पुर में ले गया और रानी चुलनी को सुनाते हुए बोला-'जो कोई भी व्यक्ति अनुचित सम्बन्ध जोड़ेगा, उसे मैं इसी प्रकार पिंजरे में डाल दूंगा।' राजा दीर्घ ने यह बात सुनी। उसने चुलनी से कहा-'कुमार ने हमारा सम्बन्ध जान लिया है। मुझे कौवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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