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________________ ५२६ नियुक्तिपंचक नाम से छह बालकों की विकुर्वणा की। वे बालक सब अलंकारों से अलंकृत थे। सबसे पहले आचार्य के पास पृथ्वीकाय नामक बालक आया। आचार्य ने सोचा-'यदि मैं इसके सारे गहने ले लं तो जीवन सुखपूर्वक बीतेगा।' आचार्य ने बच्चे से कहा-'तुम्हारे गहने उतारकर दे दो।' बालक गहने देने से इन्कार हो गया।' आचार्य ने उसे गले से पकड़ा। बालक भयभीत होकर बोला-भंते ! इस भीषण अटवी में मैं आपकी शरण में आया हूं अत: आप मेरी रक्षा करें। कहा है अनालंब का आलंबन, विपत्तिग्रस्त व्यक्ति का उद्धार तथा शरणागत की रक्षा-ये तीन रल हैं। इन तीनों से पृथ्वी समलंकृत है।' आचार्य उसका गला पकड़ने लगे तब बालक बोला-'पहले मेरी कथा सुनें फिर आपकी जो इच्छा हो वह करना।' पृथ्वीकाय कथा सुनाते हुए बोला-एक कुंभकार मिट्टी को खोद रहा था। अचानक ऊपर की मिट्टी से वह आक्रान्त हो गया। लोगों ने पूछा-'यह क्या है?' कुंभकार बोला- 'जिससे मैं भिक्षा देता हूं, देवताओं को बलि चढ़ाता हूं, ज्ञातिजनों का पोषण करता हूं. वही पृथ्वी मुझे आक्रान्त कर रही है। ओह ! शरण से भय उत्पन्न हो रहा है।' इसी प्रकार आप भी मुझ शरणागत पर प्रहार कर रहे हैं।' आचार्य ने कहा-'बोलने में तुम बहुत पंडित दिखाई दे रहे हो'-ऐसा कहकर बलपूर्वक उसके सारे आभरण लेकर पात्र में डाल लिए। थोड़ी देर बाद अप्काय नामक दूसरा बालक आया। वह भी आभूषणों से अलंकृत था। आचार्य ने उससे भी गहनों की मांग की। अप्काय ने एक आख्यानक सुनाते हुए कहा-'एक पाटल नामक तालाचर अनेक प्रकार की कथाएं सुनाकर आजीविका चलाता था। एक बार वह गंगा नदी को पार कर रहा था। इतने में नदी का तीव्र प्रवाह आया और वह पाटल बहने लगा। लोगों ने कहा-'जब तक तुम बहते-बहते दूर न निकल जाओ, तब तक कुछ सुभाषित वचन तो कहो।' उसने कहा-'जिस पानी से बीज उगते हैं, कृषक जीवित रहते हैं, उस पानी से मैं मर रहा हूं। ओह ! शरण से भय उत्पन्न हो रहा है।' इतना सनने पर भी आचार्य ने उसके आभषण उतार लिए। तीसरा बालक तेजस्काय सामने आया। उसने भी आचार्य को एक आख्यानक सुनाया। एक जंगल में एक तापस रहता था। वह प्रतिदिन अग्नि की पूजा करता, आहूति देता। एक बार उसी आग से उसकी झोंपड़ी जलकर राख हो गयी। उस तापस ने कहा-'जिस अग्नि को मैं दिन-रात मधु-घृत से सींचता रहा हूं, उसी अग्नि ने मेरी पर्णशाला जला दी। शरण देने वाला भयप्रद हो गया।' दूसरा उदाहरण सुनाते हुए उसने कहा-'एक व्यक्ति जंगल में जा रहा था। इतने में व्याघ्र आता हुआ दिखाई दिया। उसने अग्नि की शरण ली। वह अग्नि जलाकर वहां बैठ गया। व्याघ्र अग्नि को देखकर भाग गया पर उसी अग्नि ने उसे जला डाला। जिसे शरण माना था वही अशरण हो गया।' आचार्य ने उसके गहने लिए और उसे छोड़ दिया। चौथे बालक का नाम था-वायुकाय । आचार्य ने उसे भी आभूषण देने के लिए कहा। उसने आनाकानी की। आचार्य ने उसे मार डालने की धमकी दी। बालक बोला-'पहले मेरा आख्यानक सुनें फिर आपकी इच्छा हो वह करना। एक युवक शक्तिसम्पन्न और शरीर-संपदा से युक्त था। एक बार उसे वायुरोग हो गया। शीतल वायु भी उसे पीड़ित करने लगी। लोगों ने पूछा-'मित्र! पहले तुम कूदने-दौड़ने में समर्थ थे। अब तुम हाथ में दंड लेकर क्यों चलते हो? कौन से रोग से पीड़ित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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