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नियुक्तिपंचक
वह देवदत्ता को इच्छानुसार वस्तुएं देता था। समय-समय पर वस्त्र-आभरण आदि भी भेजता रहता था। वह मूलदेव के प्रति प्रद्वेष रखता था। वह निरन्तर उसके दोष खोजने की ताक में रहता था। उसके कारण मलदेव अवसर के बिना देवदत्ता के घर नहीं जा सकता था। देवदत्ता की मां ने अपनी पुत्री से कहा-'बेटी ! इस मूलदेव को छोड़ दे। इस निर्धन से तुम्हारा कोई प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है। वह उदार महानुभाव अचल बार-बार तुम्हारे लिए विविध प्रकार की सामग्री भेजता है अतः पूर्ण प्रणय से उसी को अंगीकार करो। एक ही म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। अलूणी शिला को कोई नहीं चाटता । इसलिए तू जुआरी मूलदेव को छोड़ दे।' देवदत्ता ने कहा-'अम्मा! मैं एकान्त रूप से धन की अनुरागिनी नहीं हूं। मेरी प्रतिबद्धता गुणों के साथ है।' मां ने पूछा-'उस जुआरी में ऐसे क्या गुण हैं, जिससे तू उस पर इतनी आसक्त है?' देवदत्ता ने कहा-'मां! वह गुणों का भण्डार है। वह धीर, उदारचरित, अनुकूल, कलानिपूण, प्रियभाषी, कतज्ञ. गणानरागी और विशेषज्ञ है अत: मैं उसे नहीं छोड़ सकती।' कुट्टिनी ने अनेक दृष्टान्तों से देवदत्ता को प्रतिबोध दिया कि जो अलक्तक मांगने पर नीरस वस्तु देता है, इक्षुखंड मांगने पर उसके छिलके मात्र देता है, फूल मांगने पर वृन्तमात्र देता है। वह जैसा है वैसा ही तुम्हारा प्रियतम है फिर भी तुम उसको नहीं छोड़ रही हो।' देवदत्ता ने सोचा-'मेरी मां मूढ है, इसीलिए ऐसे दृष्टान्त दे रही है।'
एक दिन देवदत्ता ने अपनी मां से कहा-'मां! आप अचलकमार से इक्ष मंगवाएं।' उसने अचल को इक्षु लाने को कहा। अचल ने शकट भरकर इक्षु भेज दिए। देवदत्ता ने कहा-'क्या मैं हथिनी हूं जो इस प्रकार के पत्तों और डालों से युक्त प्रभूत इक्षु भेजे हैं।' देवदत्ता की मां ने कहा-'पुत्री ! अचलकुमार बहुत उदार है इसीलिए उसने शकट भरकर इक्षु भेजे हैं। उसने यह भी सोचा होगा कि वह दूसरों को भी इक्षु बांटेगी इसलिए प्रभूत इक्षु-दंड भेजे हैं।'
दूसरे दिन देवदत्ता ने अपनी दासी माधवी से कहा-'हले ! जाकर मूलदेव को कहो कि मेरी इक्षु खाने की इच्छा हो रही है अत: वह इक्षु भेजे।' दासी ने जाकर सारी बात बताई। मूलदेव ने बाजार में जाकर दो इक्षुदंड खरीदे। उसको छीलकर उसने दो-दो अंगुल प्रमाण टुकड़े किए। इलायची से उन्हें सुगंधित किया। कपूर आदि द्रव्यों से उन्हें वासित किया। एक शूल से थोड़ा छेद करके उन्हें माला के रूप में धागे में पिरो दिए। एक बर्तन में उन्हें रखकर ढक्कन देकर देवदत्ता के पास भेज दिए। माधवी ने वे इक्षुखंड देवदत्ता को उपहृत किए। देवदत्ता ने उन इक्षु खंडों को अपनी मां को दिखाते हुए कहा-'देखो मां! दोनों पुरुषों में कितना अंतर है? गुणों के कारण ही मैं मूलदेव पर अनुरक्त हूं।' मां ने सोचा-'यह मूलदेव पर अत्यंत अनुरक्त है अत: यह स्वयं उसे नहीं छोड़ेगी। मुझे कोई न कोई उपाय करना चाहिए, जिससे यह कामुक यहां से चला जाए।' उसने अचल से कहा-'तुम बहाना बनाकर ग्रामान्तर जाने की बात देवदत्ता को कहो। फिर मूलदेव के यहां आने पर अपने लोगों के साथ यहां आकर उसका अपमान करो। अपमानित होने पर वह देशत्याग कर देगा। फिर तुम देवदत्ता के साथ ही रहना। मैं तुम्हें सारी सूचनाएं भेज दूंगी।' अचल ने यह बात स्वीकार कर ली। दूसरे दिन उसने वैसा ही किया। वह ग्रामान्तर जाने के बहाने घर से निकल पड़ा। मूलदेव निर्भय होकर देवदत्ता के यहां आया। देवदत्ता की मां ने अचल को मूलदेव के आगमन की बात कहलवा दी। वह अपनी साधन-सामग्री के साथ वहां आ गया। देवदत्ता ने अचल
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