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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५३७ कहा-'मैं भलीभांति तो नहीं जानता लेकिन अंगमर्दन के ज्ञाता लोगों के पास रहा हूँ।' दासी चंपक का तैल लेकर आई। मूलदेव ने अभ्यंगन प्रारम्भ कर दिया। वह मूलदेव के वशवर्ती हो गयी। देवदत्ता ने सोचा--'अहो इसके पास विज्ञान का अद्भुत अतिशय है। इसकी हथेली का स्पर्श भी अपूर्व है। यह निश्चित ही प्रच्छन्न रूप से सिद्धपुरुष होना चाहिए। प्रकृति से इस रूप वाले का इतना प्रकर्ष नहीं हो सकता अत: इसके मूल रूप को प्रकट करवाऊंगी।' देवदत्ता मूलदेव के चरणों में गिर पड़ी और बोली-'महानुभाव ! आपके असाधारण गुणों से ही मैंने आपको पहचान लिया है कि आप उत्तमपुरुष हैं, वात्सल्ययुक्त हैं तथा उदार हैं अत: आप अपना मूल रूप प्रकट करें। आपके मूल रूप का दर्शन करने हेतु मेरा हृदय अत्यंत उत्कंठित है।' बहुत अधिक आग्रह करने पर मुस्कराकर मूलदेव ने वेश-परावर्तिनी गुटिका निकाली। गुटिका के प्रयोग से वह मूल रूप में आ गया। सूर्य के समान दीप्त तेज, कामदेव के समान मोहित रूप तथा नव यौवन और लावण्य से युक्त उस मूलदेव को सबने देखा। हर्ष के कारण रोमांचित होकर देवदत्ता मूलदेव के चरणों में पुन: गिर पड़ी। देवदत्ता बोली--'आपने अपने हाथों से अभ्यंगन किया यह मुझ पर अत्यंत कृपा की है।' स्नान करने के बाद दोनों ने अच्छी तरह भोजन किया, देवदूष्य पहना और वार्तालाप करने एक स्थान पर बैठ गए। देवदत्ता ने कहा-'महाभाग ! तुमको छोड़कर कोई भी दूसरा पुरुष मेरे मन को अनुरंजित नहीं कर सका।' नीतिविदों ने यह सच ही कहा है नयणेहि को न दीसइ?, केण समाणं न होंति उल्लावा। हिययाणंदं जं पुण, जणेइ तं माणुसं विरलं॥ 'आंखों से कौन दिखाई नहीं देता? किसके साथ आलाप-संलाप नहीं होता? किन्तु हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाला पुरुष विरल ही होता है । मैं आपसे अनुरोध करती हूं कि आप प्रातादन मेरे घर आया करें ।' मूलदेव ने कहा-'गुणानुरागिणी देवी ! अन्य देश से आए मुझ जैसे निर्धन से प्रतिबद्धता रखना आपके लिए शोभास्पद नहीं है। ऐसा स्नेह स्थिर नहीं रहता है क्योंकि सभी व्यक्ति प्रयोजनवश ही स्नेह करते हैं।' देवदत्ता बोली- 'सत्पुरुषों के लिए स्वदेश और परदेश जैसा कुछ नहीं होता अत: आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करें।' देवदत्ता का आग्रह देखकर मलदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उन दोनों का आपस में स्नेहयुक्त संबंध हो गया। एक बार देवदत्ता ने राजा के समक्ष अपना नृत्य प्रस्तुत किया। उसमें मूलदेव ने वाद्य बजाए। राजा उससे बहुत संतुष्ट हुआ और एक वरदान दिया। देवदत्ता ने राजा से कहा-'आप मेरा यह वरदान धरोहर के रूप में रखें। समय आने पर मांगूंगी।' मूलदेव अत्यन्त द्यूत व्यसनी था। वह पहनने के कपड़े भी दांव पर लगाने से नहीं चूकता था। देवदत्ता ने अनुनयपूर्वक मधुर स्वर में मूलदेव को कहा-'प्रियतम ! चन्द्रमा में कलंक की भांति तुम इस व्यसन को क्यों धारण किए हुए हो? तुम सब गुणों से अलंकृत हो पर द्यूत रूप कलंक से कलंकित हो। द्यूत सभी दोषों का घर है अत: मेरे आग्रह से तुम इस व्यसन को पूर्ण रूप से छोड़ दो।' द्यूत में अत्यधिक रस होने के कारण मूलदेव उसे छोड़ नहीं सका। देवदत्ता के प्रति वहीं का निवासी अचल नामक सार्थवाह-पुत्र भी अत्यधिक आमत्त था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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