SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 757
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२६ नियुक्तिपंचक प्रतिष्ठान नगर में गए। वहां शातवाहन नामक राजा श्रावक था। उसने 'श्रमणपूजा' नामक उत्सव प्रारम्भ किया। और अंत:पर में कहा कि अमावस्या और अष्टमी आदि को उपवास करके पारणे में साध को भिक्षा देकर पारणा करना चाहिए। एक बार पर्यषणाकाल निकट आने पर शातवाहन को आचार्य कालक ने कहा कि भाद्रव शुक्ला पंचमी को पर्युषणा होती है। राजा ने कहा-'उस दिन मेरे यहाँ इन्द्र-महोत्सव होगा अतः मैं उस दिन साधु और चैत्य की पर्युपासना नहीं कर सकूँगा अतः षष्ठी के दिन पर्युषणा कर ली जाए।' आचार्य ने कहा-'पंचमी के दिन का अतिक्रमण नहीं हो सकता।' राजा ने निवेदन किया कि फिर चतुर्थी को ही पर्युषणा कर ली जाए। आचार्य ने कहा कि ऐसा संभव है अतः चतुर्थी के दिन ही पर्युषणा की गयी। इस प्रकार कारण उपस्थित होने पर चतुर्थी को भी पर्युषण मनाया गया। ९. ईर्यासमिति की जागरूकता एक साधु ईर्या समिति में उपयुक्त था। उसकी साधना के प्रभाव से इन्द्र का आसन चलित हो गया। इन्द्र ने देवताओं के मध्य उसकी प्रशंसा की। एक मिथ्यादष्टि देव इस प्रशंसा को सह नहीं सका अतः वह उस साधु के निकट आया। उसने मक्खी जितने प्रमाण की मेंढ़कियों की विकुर्वणा की। परा मार्ग मेंढकियों से समाकल हो गया। उसी मार्ग पर पीछे से एक हाथी दौडता हआ आ रहा था। उसका भय था पर मनि ने अपनी गति में भेद नहीं किया। वे ईर्यापर्वक मार्ग में चलते रहे। हाथी निकट आया और उसने मुनि को सूंड से पकड़ ऊपर उछाला। उस समय मुनि ने अपने शरीर की परवाह नहीं की। नीचे गिरने पर सत्त्वों की हिंसा होगी इस दयाभाव में परिणत होकर वे ध्यानस्थ हो गए। १०. मनोगुप्ति एक श्रेष्ठीपुत्र अपनी पत्नी को छोड़कर प्रव्रजित हो गया। एक बार वह शून्यगृह में प्रतिमा में स्थित था। उसकी पत्नी एक पारदारिक के साथ उसी शून्यगृह में आयी। अंधकार सघन था। वहां एक मंचक था। स्त्री ने मंचक को उठाया। न दीखने के कारण मंचक का एक हिस्सा (पाया) मुनि के पैर पर रख दिया। मुनि को मंचक के उस पाये की कील की चुभन महसूस होने लगी। पर वे प्रतिमा में स्थित थे। पारदारिक ने उसके साथ रतिक्रीड़ा की। मुनि ने दोनों को अनाचार का सेवन करते देख लिया, जान लिया पर वे विचलित नहीं हए। वे प्रतिमा में स्थिर रहे। १. ३. दनि ६८, दचू प. ५५। २. दनि ९१, दचू प. ५९ । दनि ९२, दचू प. ६०, दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति की ८-१० इन तीन कथाओं का क्रमांक आगे अनुवाद के पादटिप्पण में नहीं लग पाया है अत: इनको क्रम की दृष्टि से अंत में रखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy