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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं कराकर संथारा दिला दिया तथा साधु-साध्वियों को निर्देश दिया कि यह बात लोगों को न कही जाए। भक्त प्रत्याख्यान के पश्चात् कुछ साधु-साध्वियों के अतिरिक्त वह एकाकी हो गयी। पहले वह बहुत लोगों से घिरी रहती थी। अब लोग उसके पास नहीं आते थे। कुछ समय पश्चात् उसे इस साधना से अरुचि पैदा हो गयी। उसने मानसिक रूप से पुन: विद्या का प्रयोग किया जिससे लोगों का आवागमन पुन: शुरू हो गया। लोग पुष्प, फल आदि भेंट लेकर वंदना करने आने लगे। आचार्य ने साधु-साध्वियों से पूछा- 'क्या तुमने पांडुरा के बारे में लोगों को जानकारी दी है, जिससे इतनी भीड़ हो रही है।' श्रमणवर्ग ने नकारात्मक उत्तर दिया। आखिर पांडुरा से पूछा तो उसने यथार्थ बात बता दी। गुरु ने प्रतिबोध दिया और उसने उस दोष की आलोचना की। उसने पुनः विद्या का प्रयोग छोड़ दिया अतः लोगों का आवागमन कम हो गया। एकाकीपन उसे खलने लगा। इस प्रकार तीन बार उसने विद्या का प्रयोग किया और पूछने पर सम्यक् प्रतिक्रमण और आलोचना की । चौथी बार जब उसने विद्या का प्रयोग किया तो पुनः लोग आने लगे। पूछे जाने पर उसने माया का प्रयोग किया और कहा कि ये लोग पूर्व अभ्यास के कारण आते हैं। इस दोष की आलोचना किए बिना ही वह काल-धर्म को प्राप्त हो गयी? मरकर वह सौधर्म देवलोक में ऐरावत की अग्रमहिषी बनी। उसके पश्चात् वह हथिनी के रूप में भगवान् महावीर के समवसरण में उपस्थित हुई । धर्मदेशना समाप्त होने पर भगवान के सामने वह जोर से चिंघाड़ने लगी तथा सूंड से प्रचंड हवा छोड़ने लगी । यह देखकर गौतम स्वामी के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उन्होंने भगवान से पूछा। भगवान ने उसके पूर्वभव को बतलाया और प्रेरणा देते हुए कहा कि जो कोई साधु-साध्वी इस प्रकार माया का सेवन करेगा उसे ऐसा ही परिणाम भोगना पड़ेगा। माया के परिणाम अत्यंत भयंकर होते हैं । ७. करणी का फल (आर्य मंगु) आचार्य मंग बहुश्रुत, आगमज्ञ और विरक्त आचार्य थे। वे अपनी शिष्य-संपदा के साथ विहार करते हुए एक बार मथुरा नगरी पधारे। उनके वैराग्य को देखकर लोगों ने वस्त्र आदि से अभ्यर्थना की तथा प्रतिदिन दूध, दही, घी आदि स्वादिष्ट पदार्थों का दान देने लगे। आचार्य मंगु सुख और भोगों में प्रतिबद्ध होकर वहीं रहने लगे। वे विहार की चर्चा भी नहीं करते। शेष साधुओं को यह बात नहीं भायी। वे अन्यत्र विहार कर गये। आचार्य मंगु ने अन्तिम समय में अपने कृत्य पापों की आलोचना नहीं की अतः वे व्यन्तर जाति में यक्ष रूप में उत्पन्न हुए। उस स्थान से जब कोई साधु विहार करते तब वे यक्ष-प्रतिमा में प्रवेश करके खूब लम्बी जीभ निकालते । साधुओं के पूछने पर वे कहते कि मैं जीभ के सुख में प्रतिबद्ध और आसक्त हो गया था अतः कम ऋद्धिवाला देव बना हूं। तुम लोगों को प्रेरणा देने यहां आया हूं। तुम जिह्वा - सुख में प्रतिबद्ध मत होना । २ ८. आचार्य कालक और पर्युषणपर्व ६२५ उज्जयिनी नगरी में बलमित्र और भानुमित्र नामक दो राजा थे। उनका भानजा आचार्य कालक द्वारा दीक्षित हुआ। राजाओं ने आक्रुष्ट होकर आर्य कालक को देश निकाला दे दिया। वे १. दनि ११०,१११, दचू प. ६२, ६३, निभा ३१९८, ३१९९, चू. पृ. १५१, १५२ । २. दनि ११२, दचू प. ६३, निभा ३२००, चू. पृ. १५२, १५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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