SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 758
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट ७ परिभाषाएं अउगव-अयोगव। सुद्देण वइस्सीए जाओ अउगवुत्ति भण्णइ। शूद्र पुरुष से वैश्य स्त्री में उत्पन्न संतान अयोगव कहलाती है। (आचू. पृ. ५) अंबट्ठ-अम्बष्ठ। बंभणेणं वइस्सीए जाओ अंबट्ठो त्ति वुच्चइ। ब्राह्मण पुरुष से वैश्य स्त्री में उत्पन्न संतान अम्बष्ठ कहलाती है। (आचू. पृ. ५) अकम्मंस-अकर्मांश। कर्मणस्ते अवगया जस्स सो अकम्मंसो। _जिसके सभी कर्म अपगत हो गए हों, वह अकर्माश है। (उचू. पृ. १४५) अकहा-अकथा। मिच्छत्तं वेदंतो जं अण्णाणी कहं परिकहेति... सा अकहा देसिया समए। मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का वेदन करता हुआ अज्ञानी जो कथा करता है, वह विकथा कहलाती है। (दशनि.१८२) अकिंचण-अकिञ्चन। नत्थि जस्स किंचणं सोऽकिंचणो। जिसके पास कुछ भी नहीं है, वह अकिंचन है। (दशअचू. पृ. ११) अकिंचणया-अकिंचनता। अकिंचणया नाम सदेहे निस्संगता निम्ममत्तणं ति वुत्तं भवति। अपने शरीर के प्रति नि:संगता और निर्ममत्व अकिंचनता कहलाती है। __ (दशजिचू. पृ. १८) अक्खेवणी-आक्षेपणी। जाए सोता रंजिज्जति,सा अक्खेवणी। जिसको सुनकर श्रोता रंजित होते हैं, वह आक्षेपणी कथा है। (दशअचू. पृ. ५५) • विजा-चरण-पुरिसकार-समिति-गुत्तीओ जाए कहाए उवदिस्संति,सो कहाए अक्खेवणीए रसो। जिस कथा में विद्या, चरण, पुरुषकार, समिति, गुप्तियां उपदिष्ट होती हैं, वह आक्षेपणी कथा का रस है। (दशअचू. पृ. ५६) अगंधण-अगंधन। अगंधणा णाम मरणं ववसंति,ण य वंतयं आवियंति। जो मरना पसन्द कर लेते हैं पर वान्त विष का पुनः पान नहीं करते, वे अगंधन कुल के सर्प कहलाते हैं। (दशजिचू. पृ. ८७) अग्गबीय-अग्रबीज। जेसिं कोरंटगादीणं अग्गाणि रुप्पंति ते अग्गबीया। जिसका अग्रभाग ही बीज है, जिसका अग्रभाग बोया जाता है, वह वनस्पति अग्रबीज कहलाती है , जैसे- कोरंटक आदि। (दशअचू. पृ. ७५) अग्गला-अर्गला। दुवारे तिरिच्छं खीलिकाकोडियं कळं अग्गला। द्वार में तिरछे काष्ठ का अवष्टम्भन अर्गला कहलाती है। (दशअचू. पृ. १२७) अचियत्त-अप्रिय। अचियत्ते ति अप्रीतिकरः दृश्यमानः सम्भाष्यमाणो वा सर्वस्याप्रीतिमेवोत्पादयति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy