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________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति ३८१ १७६. केवली के अतिरिक्त प्राणी एक अथवा दो समय तक अनाहारक होते हैं ।' केवली के समुद्घात के समय मन्यान के प्रारंभ में तथा उसके उपसंहार काल में (अर्थात् तीसरे तथा पांचवे समय में) दो समय तथा लोक को पूरित करते हुए चौथे समय में अनाहारक होते हैं। इस प्रकार केवली तीन समय अनाहारक रहते हैं । १७७. शैलेशी अवस्था का कालमान है—अन्तर्मुहूर्त सिद्धावस्था सादिक किंतु अनन्तकाल की होती है। सिद्ध अनाहारक होते हैं । १७८. जीव सबसे पहले तेजस और कार्मण शरीर से आहार ग्रहण करता है। तदनन्तर जब तक शरीर की निष्पत्ति नहीं हो जाती तब तक औदारिक मिश्र अथवा वैक्रियमिश्र से आहार ग्रहण करता है । वह काल अनाहारक होता है । १७९. परिक्षा शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम स्थापना द्रव्य तथा भाव द्रव्यपरिक्षा के तीन प्रकार हैं- सचित्त, अचित्त तथा मिश्र । भावपरिज्ञा के दो प्रकार हैं-ज्ञपरिज्ञा तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा । चौथा अध्ययन : प्रत्याख्यानक्रिया १८० प्रत्याख्यान शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम प्रत्याख्यान, स्थापना प्रत्याख्यान, द्रव्य प्रत्याख्यान, अदित्सा प्रत्याख्यान, प्रतिषेध प्रत्याख्यान तथा भाव प्रत्याख्यान । पांचवा अध्ययन : आचारभुत I १८९ प्रस्तुत में भाव प्रत्याख्यान का अधिकार है। आदि प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान करना आवश्यक है। नहीं होता है तो उसके निमित्त से अप्रत्याख्यान क्रिया उत्पन्न होती है करनी चाहिए)। मूलगुण हैं - प्राणातिपात विरमण यदि मूलगुण से संबंधित प्रत्याख्यान (इसलिए प्रत्याख्यान किया १०२. आचार तथा श्रुतइन दोनों शब्दों के चार चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । १८३. आचार' और श्रुत' का प्रतिपादन किया जा चुका है। करना चाहिए । अबहुश्रुत-अगीतार्थ की ही विराधना होती है। परिज्ञान में प्रयत्न करना चाहिए। आई | १. तीन समय वाली अथवा चार समय वाली विग्रहगति की अपेक्षा से । Jain Education International १८४. अनाचार का प्रतिषेध प्रस्तुत अध्ययन में प्रतिपादित है (अनगार सम्पूर्ण अनाचार का प्रतिषेध करता है) इसलिए इस अध्ययन का नाम 'अनगारश्रुत' भी है। छठा अध्ययन आर्द्रकीय : १८५. 'आर्द्र' शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम आर्द्र, स्थापना आर्द्र, द्रव्य आर्द्र तथा भाव अनाचार अनाचार का सदा वर्जन इसलिए सदाचार तथा उसके २. आचार के वर्णन हेतु देखें- दशनिगा १५४-६१ । ३. श्रुत के वर्णन हेतु देखें - उनिगा २९ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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