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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण १०९ २. लतामार्ग - चूर्णिकार के अनुसार नदियों में होने वाली लताओं का आलम्बन लेकर पार करने का मार्ग। जैसे—चारुदत्त लता के सहारे नदी के एक किनारे से दूसरे किनारे पहुंचा था। जंगलों में पथिक भी लताओं को पकड़कर इधर से उधर चले जाते थे। ३. आंदोलनमार्ग - यह संभवत: झूलने वाला मार्ग रहा होगा। विशेषत: यह मार्ग दुर्ग आदि पर बनाया जाता था, जहां खाई आदि की गहराई झूलकर पार की जाती अथवा झूले के सहारे एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर जाने वाला मार्ग । कभी-कभी व्यक्ति वृक्षों की शाखाओं को पकड़कर झूलते और दूसरी ओर पहुंच जाते । वर्तमान में भी नदियों को पार करने के लिए कहीं-कहीं ऐसे मार्ग मिलते हैं,जैसे हरिद्वार में लक्ष्मण-झूला । ४. वेत्रमार्ग - नदियों को पार करने में सहायक मार्ग। जहां नदियों में वेत्र-लताएं सघन होतीं, वहां पथिक उन लताओं के सहारे एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुंच जाता था। ५. रज्जुमार्ग – मोटे रस्सों के सहारे एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचने का मार्ग। यह पर्वत जैसे अति दुर्गम स्थानों को पार करने के काम आता था। आज भी पहाड़ी स्थानों पर ऐसे मार्ग देखे जाते हैं। चूर्णिकार के अनुसार गंगा आदि नदियों को पार करने में रज्जु मार्ग का सहारा लिया जाता था। पथिक एक किनारे पर रज्जु को वृक्ष से बांध देते और उस लम्बे रज्जु के सहारे तैरते हुए दूसरे किनारे पहुंच जाते। ६. दवनमार्ग – दवन का अर्थ है—यान-वाहन। सभी प्रकार के वाहनों के यातायात में यह मार्ग काम आता था। इस पथ पर हाथी, घोड़े, रथ, बैल आदि सहजतया आते-जाते थे। ये मार्ग मुख्य रूप से शहरों को जोड़ने वाली सड़कों का कार्य करते थे। ७. बिलमार्ग - गुफा के आकार वाले मार्ग, जिनको मूषिक पथ भी कहा जाता था। यह मार्ग सामान्यतया पर्वतों पर होता था। पर्वतीय चट्टानों को काटकर चूहों के बिल जैसी छोटी-छोटी सुरंगें बनायी जाती थीं। अंधकारयुक्त होने के कारण इनमें दीपक लेकर प्रवेश करना पड़ता था। ८. पाशमार्ग - चर्णिकार के अनसार यह वह मार्ग है. जिसमें व्यक्ति अपनी कमर को रज्ज से बांधकर रज्जु के सहारे आगे बढ़ता था। सोने आदि की खदान में इसी के सहारे नीचे गहन अधंकार में उतरा जाता था और रज्जु के सहारे ही बाहर आया जाता था। टीकाकार के अनुसार जिस मार्ग में पक्षियों को फंसाने के लिए पाश डाल दिए जाते, वह पाशमार्ग कहलाता था।१० ९. कीलकमार्ग -वह मार्ग, जहां स्थान-स्थान पर कीले गाड़े जाते थे। पथिक उन कीलों या खंभों की १. सूचू १ पृ. १९३ २. सूटी पृ. १३१ । ३. सूचू १ पृ १९४। ४. सूटी पृ. १३१ । ५. सूटी पृ. १३१ ६. सूचू १ पृ. १९४; रज्जुहिं गंगं उत्तरति। ७. सूटी प. १३१; बिलमार्गो यत्र तु गुहाद्याकारेण बिलेन गम्यते। ८. सूचू १ पृ. १९४; बिलं दीवगेहिं पविसंति। ९. सूचू १ पृ. १९४। १०. सूटी पृ. १३१; पाशमार्गः पाशकूटवागुरान्वितो मार्ग इत्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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