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परिशिष्ट ६ : कथाएं
छेदन की वक्तव्यता के अनुसार प्रथम समय के नारक विच्छिन्न हो जाएंगे, दूसरे समय के नारक भी विच्छिन्न हो जाएंगे। उत्पत्ति के अनन्तर ही वस्तु विनष्ट हो जाती है अतः उच्छेदवाद में उसकी आस्था जम गई। गुरु ने कहा- 'यह बात ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से है । सब नयों की अपेक्षा से सत्य नहीं है।' गुरु के समझाने पर भी उसने गुरु के कथन को स्वीकार नहीं किया। निह्नव समझकर गुरु ने उसे संघ से अलग कर दिया। वह अपने शिष्यों के साथ समुच्छेदवाद की मिथ्या प्ररूपणा करता हुआ लोगों को भ्रमित करने लगा कि यह सारा लोक शून्य हो जाएगा ।
विहार करते हुए वे राजगृह नगरी में पहुंचे। वहां के खंडरक्ष आरक्षक श्रावक थे । वे शुल्कपाल थे। उन्होंने अश्वमित्र को उसके शिष्यों के साथ पकड़ लिया और सबको पीटने लगे। अश्वमित्र ने कहा कि तुम तो श्रावक हो फिर भी श्रमणों को इस तरह पीट रहे हो ? तब श्रावकों ने कहा-'जो प्रव्रजित हुए थे वे तो विच्छिन्न हो गए। तुम चोर हो या गुप्तचर कौन जाने? आपको कौन मार रहा है आप तो स्वयं विनष्ट हो रहे हो । ' इस प्रकार भय और युक्ति से समझाने पर वे संबुद्ध हो गए और गुरु के पास जाकर प्रायश्चित्त लेकर पुनः संघ में प्रविष्ट हो गए।
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४०. आचार्य गंग और द्वैक्रियवाद ( वीर - निर्वाण के २२८ वर्ष पश्चात् )
उल्लुका नदी के एक तट पर उल्लुकातीर नामक नगर था और दूसरे तट पर 'खेटस्थान' था। वहां आचार्य महागिरि के शिष्य धनगुप्त रहते थे। उनका शिष्य आचार्य गंग था । वे नदी के उस तट पर उल्लुगातीर नगर में निवास कर रहे थे। एक बार आचार्य गंग शरद्काल में अपने आचार्य को वंदना करने नदी के उस तट पर स्थित खेटस्थान में जा रहे थे। वे नदी में उतरे। उनका सिर गंजा था। ऊपर सूरज से सिर तप रहा था और नीचे से पानी शीतल लग रहा था। उन्हें एक क्षण में सिर को सूर्य की गरमी और पैरों को नदी की ठंडक का अनुभव हो रहा था । उनको शंका हो गयी कि सूत्र में कहा है कि एक समय में एक क्रिया का वेदन होता है पर मुझे तो दो क्रियाओं का अनुभव हो रहा है। गुरु ने उसको समझाया कि समय, आवलिका आदि काल की सूक्ष्मता तथा मन की सूक्ष्म और शीघ्रगामिता के कारण तुम क्रिया की पृथक्ता का अनुभव नहीं कर सकते पर वे समझे नहीं। उनको संघ से पृथक् कर दिया गया। शिष्यों के साथ मिथ्या प्ररूपणा करते हुए वे दूसरों को भी शंकित करने लगे ।
आचार्य गंग संघ से अलग होकर राजगृह नगर में आए। वहां महातपस्तीरप्रभ नामक एक झरना था। वहां मणिनाग नामक नागदेव का चैत्य था। आचार्य गंग ने उस चैत्य में परिषद् के सम्मुख एक समय में दो क्रियाओं के वेदन की बात कही। मणिनाग नागदेव ने परिषद् के मध्य प्रकट होकर कहा - ' तुम यह मिथ्या प्ररूपणा मत करो। मैंने भगवान् महावीर के मुख से सुना है कि एक समय में एक ही क्रिया का संवेदन होता है। तुम अपने मिथ्या वाद को छोड़ो। इससे तुम्हारा अहित होगा।' आचार्य गंग प्रतिबुद्ध हो गए। वे गुरु के पास आए और प्रायश्चित्त पूर्वक संघ में सम्मिलित हो गए।
१. उनि. १७२ / ५, उशांटी. प. १६२-६५, उसुटी. प. ७१,७२ । २. उनि १७२ / ६, उशांटी. प. ९६५ -६८, उसुटी.प. ७२१
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