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________________ आचारांग नियुक्ति २५७,२५८. चौथे उद्देशक में वस्त्र धोने, पहनने और रंगने की तथा स्थान की अनुज्ञा आदि लेने की विधि का वर्णन है। इसके अतिरिक्त औद्देशिक पिंड (साधु के निमित्त बनाया गया आहार) तथा शय्यातर पिड के परिभोग का वर्जन किया गया है और स्वपरिग्रह (उपधि आदि) का परिसीमन तथा सन्निधि --संचय करने का निषेध किया गया है। २५९,२६०. पांचवें उद्देशक में सूत्र के अर्थ के आधार पर जिनधर्म में पराक्रम का वर्णन है । स्थावर कायों के प्रति दया करने तथा स्वय के प्रति होने वाले आक्रोश तथा वध को सहन करने का निर्देश है। इसके साथ प्रसकाय का समारंभ और गृहस्थ के पात्र में आहार का निषेध किया गया है। अन्यतीथिक साधुओं के साथ होने वाले अननुज्ञात व्यवहार का निर्देश है । २६१. छठे उद्देशक में संयम के विघ्नों का तथा तीसरे उद्देशक की विषयवस्तु का विस्तृत वर्णन है। इसमें साधु के लिए आचरणीय स्थानों का निर्देश तथा स्नान एवं परिभोग आदि का निषेध है। २६२,२६३. सातवें उद्देशक में तीन पलय (?), शीत परिषह को सहने तथा कर्मरजों को प्रकंपित करने का निर्देश है । प्रयोजन होने पर सूई मात्र भी परिग्रह न करने का वर्णन है। सातवें उद्देशक के अंत में आसंदी-वर्जन का तथा अतिथि मुनियों को निमंत्रित करने का, संलेखना, भक्तपरिज्ञा तथा अंतक्रिया--सिद्धि का वर्णन है। २६४. महत् शब्द प्राधान्य और परिमाण के अर्थ में प्रयुक्त है। प्राधान्य और परिमाण का निक्षेप छह प्रकार का है । २६५. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो प्रधान होते हैं, उसमें महत् शब्द प्राधान्य के अर्थ में निष्पन्न है। २६६. द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव में जो महत् होते हैं, उनमें महत् शब्द प्रमाण (परिमाण) के अर्थ में निष्पन्न है। २६७. परिज्ञा के छह निक्षेपों में द्रव्य परिज्ञा, क्षेत्र परिज्ञा, काल परिज्ञा, भाव परिज्ञाइन चारों के ज्ञान तथा प्रत्याख्यान रूप दो-दो भेद हैं। २६८,२६९. भावपरिज्ञा के दो प्रकार हैं-मूलगुण विषयक भावपरिज्ञा तथा उत्तरगुण विषयक भावपरिज्ञा। मूलगुण विषयक भावपरिज्ञा पांच प्रकार की है तथा उत्तरगुण विषयक भावपरिज्ञा दो प्रकार की है। प्रस्तुत में भावपरिज्ञा के दो प्रकारों में प्राधान्य का प्रसंग है । जो परिज्ञाओं में प्रधान है, वह महापरिज्ञा है । २७०. देवियों, मनुष्य-स्त्रियों तथा तिर्यंञ्च-स्त्रियों का त्रिविध परित्याग-यह महापरिज्ञा अध्ययन की नियुक्ति है। आठवां अध्ययन : विमोक्ष २७१-७५. आठवें अध्ययन के आठ उद्देशक हैं । उनके अर्थाधिकार इस प्रकार हैं१. पहले उद्देशक में असमनोज्ञ प्रावादुकों के परित्याग का कथन है। २. दूसरे उद्देशक में अकल्पिक-आधाकर्म आदि का परित्याग करने का निर्देश तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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