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________________ निर्युक्तिपंचक मुझे लक्ष्य कर कह रहे हैं ।' उसने तत्काल सभी वस्तुएं छोड़ने का निश्चय कर लिया । वह अपने पुत्र आचार्य आर्यरक्षित के पास गया और कहा - 'मैं छत्र छोड़ दूंगा तो आतप में क्या करूंगा?' आचार्य बोले—— आतप में सिर पर कपड़ा डाल देना।' अगर कमंडलु छोड़ दूं तो ? संज्ञाभूमि में पात्र ले जाते ही हैं। पुन: वृद्ध बोला- 'मैं ब्राह्मण हूं अत: यज्ञोपवीत कैसे छोड़ दूं?' आचार्य ने समाधान दिया- 'हम ब्राह्मण हैं, यह कौन नहीं जानता?' इस प्रकार उसने सभी वस्तुओं का परिहार कर डा। इतने में बालक चिल्ला उठे - 'कटिवस्त्रधारी मुनि को छोड़कर हम सभी मुनियों को वंदना करते हैं।' यह सुनकर वृद्ध मुनि रुष्ट होकर बोला- 'तुम सभी मुझे वंदना मत करो। मुझे अन्य लोग वंदना करेंगे पर मैं यह कटिवस्त्र नहीं छोडूंगा।' एक बार वहीं एक मुनि भक्तप्रत्याख्यान कर कालगत हो गया । उसको निमित्त बनाकर आचार्य आर्यरक्षित ने उनका कटिवस्त्र उतरवाने के लिए कहा- 'जो इस मृत मुनि का वहन करेगा, वह महान फल का आभागी होगा।' पूर्व प्रव्रजित मुनि बोले- 'हम इसको वहन करेंगे।' वे सभी उपस्थित हुए । आचार्य ने कहा- 'मेरा स्वजन वर्ग निर्जरा का भागी न बने इसलिए तुम सब लोग इसको वहन करने के लिए कह रहे हो।' तब वृद्ध मुनि ने पूछा - 'पुत्र ! क्या इसको वहन करने से बहुत 'निर्जरा होती है?' आचार्य ने उत्तर दिया- इसमें निर्जरा तो प्रत्यक्ष है, पूछना क्या है? तब स्थविर मुनि बोले- मैं भी इसको वहन करूंगा।' आचार्य बोले- ' इसमें उपसर्ग हो सकते हैं । बालक पीछे लग सकते हैं । यदि तुम इन उपसर्गों को सहन कर सको तो इसको वहन कर ले जाओ । यदि तुम सहन नहीं कर पाओगे तो अच्छा नहीं रहेगा।' इस प्रकार उसे स्थिर कर दिया । ४९६ वृद्ध साधु ने शव को उठाया। साधु आगे चल रहे थे। पीछे साध्वियां थीं। तब पूर्व योजना के अनुसार कुछ बालक आए और उस स्थविर मुनि का कटिवस्त्र खींच डाला। उसने लज्जावश मृतक को छोड़ना चाहा तब दूसरों ने कहा-' शव को बीच में मत छोड़ देना।' तब वृद्ध ने दूसरे कपड़े से कटिवस्त्र बना डोरी से उसे बांध दिया। अब वह लज्जावश उसे वहन करते हुए सोचने लगा कि मार्ग में मुझे मेरी पुत्रवधुएं देखेंगी। 'यह उपसर्ग आया है' – यह सोचकर उसने उसे सहन किया। फिर उसी अवस्था में उपाश्रय में आया । आचार्य ने पूछा- 'मुने ! आज यह क्या?' तब वृद्ध बोला - 'पुत्र ! आज उपसर्ग आया था।' आचार्य ने कहा- 'अच्छा, शाटक ले आओ।' वृद्ध बोला- 'अब शाक का क्या प्रयोजन? जो देखना था, वह देख लिया। अब तो चोलपट्टक ही उचित रहेगा ।' उसे चोलपट्टक दे दिया गया। पहले उसने अचेल परीषह सहन नहीं किया, बाद में सहन किया । " ८ अरति परीषह अचलपुर नगर में जितशत्रु राजा राज्य करता था । उसका पुत्र युवराज आचार्य राध के पास दीक्षित हुआ। एक बार वह विहार करता हुआ तगरा नगरी पहुंचा। उस समय आचार्य राध के स्वाध्याय अंतेवासी शिष्य आर्यराध श्रमण उज्जैनी में विहार कर रहे ।। राधश्रमण के कुछ शिष्य तगरा नगरी में आर्य राध के पास आए। आर्य राध ने आए हुए शिष्यों से पूछा - 'वहां कोई उपसर्ग १. उनि ९५ - ९८, उशांटी. प. ९७,९८, उसुटी.प. २३-२५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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