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नियुक्तिपंचक कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा करते हुए, आयुष्य कर्म की अनुदीरणा करते हुए, पुंवेद का अनुभव करते हुए तथा क्षायोपशमिक भाव में वर्तमान गणधरों ने इस सूत्र की रचना की।"१ पाश्चात्य विद्वान् विंटरनित्स के अनुसार भाषा की दृष्टि से सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कंध अधिक प्राचीन है। दूसरा श्रुतस्कंध परिशिष्ट के रूप में बाद में संकलित किया गया है। यह मान्यता भी प्रचलित है कि प्रथम श्रुतस्कंध के विषयों का ही द्वितीय श्रुतस्कंध में विस्तार हुआ है। विषय-निरूपण एवं भाषा-शैली की दृष्टि से इसका समय महावीर के समकालीन कहा जा सकता है। उस समय प्राकृत जनभाषा थी अत: नियुक्तिकार कहते हैं कि तीर्थंकरों ने अपने वाग्योग से अर्थ की अभिव्यक्ति की तथा अनेक योगों के धारक गणधरों ने अपने वचनयोग से जीव के स्वाभाविक गुण अर्थात् प्राकृत भाषा में इसको निरूपित किया। अध्ययन एवं विषय-वस्तु
सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम अध्ययन के १६ तथा द्वितीय श्रुतस्कंध में सात अध्ययन हैं। इसके प्रथम अध्ययन के चार, दूसरे अध्ययन के तीन, तीसरे अध्ययन के चार तथा चौथे और पांचवें अध्ययन के दो-दो उद्देशक हैं। शेष ग्यारह अध्ययनों तथा दूसरे श्रुतस्कंध के सात अध्ययनों के एक एक उद्देशक हैं। इस प्रकार दोनों श्रुतस्कंधों के कुल मिलाकर २३ अध्ययन तथा तेतीस उद्देशक हैं। इसका पद-परिमाण आचारांग से दुगुना अर्थात् ३६ हजार श्लोक प्रमाण था लेकिन वर्तमान में इसका काफी भाग लुप्त हो गया। सूत्रकृतांग का अधिकांश भाग पद्य में है किन्तु कुछ भाग गद्य में भी है।
नंदी के अनुसार इसमें लोक, अलोक, लोकालोक, जीव, अजीव, जीवाजीव, स्वसमय, परसमय तथा स्वसमय-परसमय का निरूपण है। समवाओ के अनुसार इसमें स्वसमय, परसमय तथा जीव आदि नौ पदार्थों की सूचना है। इसके अतिरिक्त इसमें १८० क्रियावादी, ८४ अक्रियावादी, ६७ अज्ञानवादी तथा ३२ विनयवादी दर्शनों अर्थात् ३६३ मतवादों का उल्लेख है।
सूत्रकृतांगनियुक्ति (२४-२८) में इसके प्रत्येक अध्ययन की विषय-वस्तु का संक्षेप में निरूपण किया है। उसके अनुसार प्रथम श्रुतस्कंध के सोलह अध्ययनों के अर्थाधिकार इस प्रकार हैं
१. स्वसमय और परसमय का निरूपण। २. स्वसमय का बोध । ३. संबुद्ध व्यक्ति का उपसर्ग में सहिष्णु होना। ४. स्त्री-दोषों का विवर्जन। ५. उपसर्गभीरु तथा स्त्री के वशवर्ती व्यक्ति का नरक में उपपात । ६. जैसे महावीर ने कर्म और संसार का पराभव कर विजय के उपाय कहे, वैसा प्रयत्न करना। ७. नि:शील तथा कुशील को छोड़कर सुशील और संविग्नों की सेवा करने वाला शीलवान् । ८. दो प्रकार के वीर्य को जानकर पंडितवीर्य में यत्न करना। ९. यथावस्थित धर्म का कथन।
१. सूनि १७ । २. History of Indian Literature, Vo2, Page 421 । ३. सूनि १९ ।
४. सूनि २२ ५. नंदी ८२। ६. समप्र. ९०।
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