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________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं विसारय-विशारद । अर्थग्रहणसमर्थो विशारदः प्रियकथनो वा। अर्थ ग्रहण करने में समर्थ अथवा प्रियवादी व्यक्ति विशारद कहलाता है। (सूचू १ पृ. २२४) विहंगम-विहंगम। विहं-आगासं, विहायसा गच्छंति त्ति विहंगमा। जो विह-आकाश में विचरण करते हैं, वे विहङ्गम हैं। (दशअचू पृ. ३३) • विहं गच्छन्त्यवतिष्ठन्ते स्वसत्तां बिभ्रतीति विहङ्गमाः। जो आकाश में उड़ते रहते हैं, अपनी सत्ता को बनाए रखते हैं, वे विहंगम हैं। (दशहाटी प. ७०) विहुयकप्प-विधूतकल्प। विधूतं वा जेण कम्मं तेण तुल्यो विधूतकप्पो। जिसने कर्मों को धुन डाला है, उसके तुल्य विधूतकल्प होता है। (आचू पृ. २१७) वीससाकरण-विस्रसाकरण। खंधेसु य दुपदेसादिएसु, अब्भेसु विज्जुमादीसु। निप्फण्णगाणि दव्वाणि, जाणि तं वीससाकरणं॥ द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों में तथा अभ्र, विद्युत् आदि में परिणत पुद्गल-द्रव्य विस्रसाकरण कहलाता है। (सूनि ८) वीससामेल-विस्रसामेल। विस्रसामेलो णाम दोण्हं तिहं चतुण्डं पंचण्हं वा वण्णाणं संयोगविसेसेणं उप्पज्जते। दो, तीन, चार अथवा पांच वर्षों के संयोग विशेष से जो उत्पन्न होता है, वह विस्रसामेल है। (सूचू १ पृ. १०) वुसीमंत-संयमी। वशे येषामिन्द्रियाणि ते भवंति वुसीम, वसंति वा साधुगुणेहि वुसीमंतः। जो जितेन्द्रिय अथवा मुनि-गुणों से युक्त हैं, वे वृषिमान्–संयमी हैं। (उचू पृ. १३७) वेणव-वेणव। वैदेहेणं खत्तीए जाओ वेणवु त्ति वुच्चइ। वैदेह पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में उत्पन्न संतान वेणव कहलाती है। (आचू पृ. ६) वेदवि-वेदवित् । दुवालसंग वा प्रवचनं वेदो, तं जे वेदयति स वेदवी। द्वादशांगी अथवा जिन-प्रवचन का अपर नाम वेद है। जो इसको जानता है, वह वेदविद् __(आचू पृ. १८५) वेदेह-वैदेह । वइस्सेण बंभणीए जाओ वेदेहो त्ति भण्णति। वैश्य पुरुष से ब्राह्मण स्त्री में उत्पन्न संतान वैदेह कहलाती है। (आचू. पृ. ६) वोसट्ठकाय-व्युत्सृष्टकाय। वोसट्ठकाए त्ति अपडिकम्मसरीरो उच्छूढसरीरो त्ति वुत्तं होति। जो शरीर का प्रतिकर्म नहीं करता, शरीर की सार-संभाल नहीं करता, वह व्युत्सृष्टकाय है। (सूचू १ पृ. २४६) संखडी-जीमनवार। छण्हं जीवनिकायाणं आउयाणि संखडिज्जति जीए सा संखडी भण्णइ। जहाँ छह जीवनिकायों के प्राणियों का आयुष्य खंडित किया जाता है, जीव वध किया जाता है, वह संखडी (भोज, जीमनवार) है। (दशजिचू पृ. २५७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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