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________________ निर्युतिपंचक २९२. (शिष्य ने जिज्ञासा की ) जो प्रतिदिन तपस्या में उद्यमशील नहीं होता वह तपःकर्म में पंडित कैसे हो सकता है ? (गुरु ने समाधान दिया) जो भोजन करता हुआ भी निरंतर वृत्तिसंक्षेप-बत्तीस कवल परिमाण भोजन को कम करता जाता है वह तपःकर्म में पंडित होता है । ३१४ २९३. तप:कर्म में उद्यत मुनि बेले तेले आदि की तपस्या करता और अनशन के उद्देश्य से पारणे में अल्प आहार लेता है । वह अपने आहार को विधिपूर्वक क्रमशः कम करता हुआ अन्त में आहार का पूर्ण निरोध- अनशन कर लेता है । २९४. वह स्थान की प्रतिबद्धता से मुक्त, उपकरण, शरीर आदि परिकर्म से रहित, अनासक्त, त्यागी मुनि आयुष्य - काल की प्रतीक्षा करता है । नौवां अध्ययन : उपधानश्रुत २९५. प्रस्तुत अध्ययन का अर्थाधिकार यह है कि जब जो तीर्थंकर होते हैं, वे अपने तीर्थ में उपधानश्रुत अध्ययन में अपने तप कर्म का वर्णन करते हैं । २९६. सभी तीर्थंकरों का तपःकर्म निरुपसर्ग होता है । केवल भगवान् वर्धमान का तपःकर्म उपसर्ग सहित था । २९७. (केवलज्ञान से पूर्व ) तीर्थंकर चतु:ज्ञानी होते हैं । वे देवताओं द्वारा पूजित होते हैं । वे अवश्य ही सिद्ध होते हैं । फिर भी वे अपने बल और पराक्रम का गोपन किए बिना तप: उपधान में उद्यम करते हैं । २९८. मनुष्य जन्म अनेक आपदाओं तथा दुःखों से परिपूर्ण है । यह जानकर अवशिष्ट सुविहित मुनि अपने दुःखक्षय कर्मक्षय के लिए क्या तपः उपधान में उद्यम नहीं करेंगे ? २९९. प्रस्तुत अध्ययन के चारों उद्देशकों का अर्थाधिकार इस प्रकार है प्रथम उद्देशक में भगवान् महावीर की चर्या का निरूपण है । दूसरे उद्देशक में भगवान् महावीर की शय्या - वसति का स्वरूप निर्दिष्ट है । ० तीसरे उद्देशक में भगवान् महावीर के अनुकूल-प्रतिकूल परीषहों का प्रतिपादन है । • चौथे उद्देशक में (क्षुत्पीडा से) आतंकित होने पर चिकित्सा-विधि का निरूपण है । चारों उद्देशकों में भगवान् के तपश्चरण का अधिकार चलता है । O ० ३००. उपधान शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव | इसी प्रकार श्रुत शब्द के भी चार निक्षेप हैं । ३०१. द्रव्य उपधान - तकिया । भाव उपधान है— तप तथा चारित्र । इसलिए प्रस्तुत प्रसंग में ज्ञान, दर्शन, तप तथा चारित्र का अधिकार है । ३०२. जैसे मलिन वस्त्र पानी आदि द्रव्यों से शुद्ध होता है, वैसे ही आठ प्रकार का कर्मबंध भाव उपधान से शुद्ध होता है । ३०३. अवधूनन, धूनन, नाशन, विनाशन, ध्मापन, क्षपण, शुद्धिकरण (शोधिकरण ), छेदन, भेदन, स्फेटन अपनयन, दहन तथा धावन ये बारह क्रियाएं कर्मों की विभिन्न अवस्थाओं के अपनयन की हैं।" १. वृत्तिकार ने इन सब क्रियाओं का विस्तार से वर्णन किया है । देखें आटी पृ० १९८,१९९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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