SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांग नियुक्ति ३१३ २६६. आनुपूर्वी मरण का क्रम यह है जो साधक मुमुक्षाभाव से उत्प्रेरित है, उसे पहले दीक्षा दी जाता है। फिर उसे सूत्र की वाचना और पश्चात् अर्थ की वाचना से अनुप्राणित किया जाता है । गुरु से अनुज्ञा प्राप्त कर जब वह तीन प्रकार के अनशनों में से किसी एक को ग्रहण करता है, तब वह आहार, उपधि और शय्या इन तीन के नित्य परिभोग से मुक्त हो जाता है ।" २८७. अनशन की आज्ञा लेने वाले मुनि को आचार्य पुनः संलेखना करने की प्रेरणा देते हैं पर वह कुपित हो जाता है। जैसे राजा की आज्ञा पहले तीक्ष्ण होती है बाद में शीतल बन जाती है। वैसे ही आचार्य की प्रेरणात्मक आज्ञा पहले तीक्ष्ण लगती है, बाद में कुछ शीतल बन जाती है । (यदि इतने पर भी मुनि का क्रोध शांत नहीं होता है तो) अन्य तंबोल पत्रों को सुरक्षित रखने के लिए जैसे कुथित तंबोल पत्र को बाहर निकाल दिया जाता है, वैसे ही उस मुनि को गण से बाहर कर दे । यदि वह आचार्य की आज्ञा मानता है तो उसकी पहले, कदर्थना करे, उसकी सहिष्णुता की परीक्षा करे और फिर उस पर प्रसाद अर्थात् अनशन की आज्ञा देने की कृपा करे। I २८- ९१. जैसे पक्षिणी अपने अंडों का प्रयत्नपूर्वक निष्पादन करती है वैसे ही गुरु शिष्यों को निष्पादित कर योग्य बनाकर बारह वर्षों की संलेखना स्वीकार करे। उस संलेखना का स्वरूप इस प्रकार है : १. प्रथम चार वर्षों तक विचित्र तप का अनुष्ठान अर्थात् उपवास, बेला - दो दिन का उपवास, तेला-तीन दिन का उपवास, चोला चार दिन का उपवास, पंचोलापांच दिन का उपवास करना होता है । इस काल में पारणक विगय सहित या विगय रहित किया जा सकता है । २. द्वितीय चार वर्षों में तपस्या के पारणक विगवरहित ही होते हैं। ३. नौंवें तथा दसवें वर्ष में एक उपवास, फिर आयंबिल - इस प्रकार दो वर्ष तक करने होते हैं । ४. ग्यारहवें वर्ष में पहले छह महीने में अतिविकृष्ट तप नहीं होता, उपवास या बेले के पारणक में नियमित आयबिल करना होता है । दूसरे छह महीने में विकृष्ट तपश्चरण के पारणक में आयंबिल करना होता है। ५. बारहवें वर्ष में कोटी सहित आचाम्ल' करना होता है (चातुर्मास शेष रहने पर करता है) इस प्रकार क्रमश: संलेखना करता । जाकर अपनी इच्छानुसार प्रायोपगमन (अथवा स्वीकार करता है।* अनशनकारी तेल के बार-बार कुल्ले हुआ साधक अंत में गिरिकन्दरा में इंगिनी या भक्तप्रत्याख्यान) अनशन १. यदि आचार्य अनशन करना चाहें तो वे सबसे पहले शिष्यों का निष्पादन कर, दूसरे आचार्य की स्थापना कर, औत्सर्गिक रूप से बारह वर्षों की संलेखना से अपने शरीर को कृश कर, गच्छ की अनुज्ञा से अथवा अपने द्वारा प्रस्थापित आचार्य से अनुज्ञा प्राप्त कर अनशन करने के लिए अन्य आचार्य की सन्निधि में जाए। इसी प्रकार संलेखना लेने वाले उपाध्याय, प्रवर्त्तक, स्थविर, Jain Education International गणावच्छेदक अथवा सामान्य मुनि आचार्य से अनुज्ञा प्राप्त कर अनशन स्वीकार करे २. देखें परि० ६, कथा सं० ९ । ३. कोटीसहित आचाम्ल - पूर्व दिन के आचाम्ल से अगले दिन के आचामल की श्रेणी को मिलाना । भावार्थ में प्रतिदिन आचाम्ल करता है । ४. विशेष विवरण के लिए देखें- श्री भिक्षु आगम विषय कोश पृ० ६६०, ६६१ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy