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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण १२१ में विलम्ब हो गया । विलम्ब होना भी देर आए दुरुस्त आए' उक्ति को चरितार्थ करने वाला रहा । उस समय नियुक्तियों का अनुवाद होना संभव नहीं था। बाद में मुनि श्री दुलहराजजी स्वामी की मानसिकता बनी और उन्होंने बहुत कम समय में पांचों नियुक्तियों का अनुवाद कर दिया । हस्तप्रतियों से पाठ - संपादन का कार्य अत्यंत दुरूह और जटिल है । बिना धैर्य और एकाग्रता व्यक्ति इस कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकता । पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी पाठ संपादन के कार्य को अत्यंत महत्त्व देते थे। जब-जब इस कार्य के प्रति मेरे मन में अरुचि या निराशा जागती, मेरे हाथ श्लथ होते, तब-तब गुरुदेव प्रेरणा - प्रोत्साहन देकर नए प्राणों का संचार कर देते । अनेकों बार उनके मुखारविंद से यह सुनने को मिला – “देखो! आगम का कार्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इससे नया इतिहास बनेगा और धर्मसंघ की अपूर्व सेवा होगी।" पूज्य गुरुदेव पाठ संपादन को कितना महत्त्वपूर्ण मानते थे, यह निम्न घटना से स्पष्ट हो जाता है— एक बार आचार्य तुलसी के समक्ष आचारांग का वाचन चल रहा था। मुनि श्री नथमल जी ( आचार्य महाप्रज्ञ) आचारांग के गूढ़तम रहस्यों को खोल रहे थे । अनेक विद्यार्थी साधु-साध्वियां दत्तचित्त होकर व्याख्या सुन रही थीं। प्रसंगवश मुनि श्री दुलहराजजी ने आचार्य प्रवर को निवेदन किया‘पाठ-संपादन जैसे कार्य में मुनि श्री नथमलजी का इतना समय लगना कुछ अटपटा सा लगता है । इस कारण मुनि श्री को मौलिक सृजन के लिए अवकाश नहीं मिलता। ऐसी प्रतिभाएं यदा-कदा ही आती हैं अतः इनका समुचित लाभ उठाना चाहिए, जिससे संघ को अधिक लाभ मिल सके।' गुरुदेव तुलसी ने मुनि श्री के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहा- "तुम पाठ - संशोधन को मौलिक कार्य नहीं मानते, यह तुम्हारी भूल है । मैं मानता हूं कि शोधकार्य का सबसे प्रमुख अंग है— मूल पाठ का निर्धारण । यह कार्य हर एक व्यक्ति नहीं कर सकता। दूसरी बात पाठ - संशोधन के क्रिया-काल में ये कितने लाभान्वित हुए हैं, यह बात इनके मुख से ही सुनो।" मुनि नथमलजी ने अपना मंतव्य प्रस्तुत करते हुए कहा“पाठ-निर्धारण में पौर्वापर्य का अनुसंधान अत्यंत अपेक्षित होता है और यह तभी संभव है जब एक-एक शब्द पर चिंतन केन्द्रित कर उसके हार्द को समझा जाए। इस प्रक्रिया से विचारों की स्पष्टता, चिंतन गूढ़ता और अर्थ - संग्रहण की प्रौढ़ता बढ़ती है । मैं इसे मौलिक अध्ययन मानता हूं । मेरा दृढ़ विश्वास है कि इसके परिपार्श्व में जो कुछ लिखा जाएगा, वह मौलिक ही होगा । " आचार्य तुलसी ने अपने जीवन में नारी - विकास के अनेक स्वप्न देखे और वे फलित भी हुए। एक स्वप्न की चर्चा करते हुए बीदासर में (१२/२/६७) गुरुदेव ने कहा- " मैं तो उस दिन का स्वप्न देखता हूं, जब साध्वियों द्वारा लिखी गई टीकाएं या भाष्य विद्वानों के सामने आएंगे। जिस दिन वे इस रूप में सामने आएंगी, मैं अपने कार्य का एक अंग पूर्ण समझंगा ।" पूज्य गुरुदेव तुलसी का यह स्वप्न पूर्ण रूप से सार्थक नहीं हुआ है, पर आचार्य महाप्रज्ञ के निर्देशन में इस दिशा में प्रयास जारी है। वर्तमान में अनेक साध्वियां आगम-संपादन एवं साहित्य-सृजन के कार्य में संलग्न हैं । भगवती जोड़ जैसे बृहत्काय ग्रंथ रत्न का संपादन भी महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा जी द्वारा सात खंड़ों में संपादित होकर प्रकाशित हो चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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