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________________ १२० नियुक्तिपंचक कार्य में कोई अवरोध नहीं आना चाहिए। आगम-कार्य करते समय मेरा मानसिक तोष इतना बढ़ जाता है कि समस्त शारीरिक क्लान्ति मिट जाती है। आगम-कार्य हमारे लिए वरदान सिद्ध हुआ है। यदि हम इसके लिए कुछ भी श्रम करते हैं तो यह हमारे लिए अत्यंत सौभाग्य की बात है। इससे बढ़कर दूसरा और कौन-सा पुण्य-कार्य होगा।' आचार्य तुलसी के इस फौलादी संकल्प, आचार्य महाप्रज्ञ के संपादन-कौशल एवं अन्य संतों की कार्यनिष्ठा से बत्तीसी का मूल पाठ प्रकाशित होकर विद्वानों के समक्ष पहुंच गया है। इसके अतिरिक्त अनेक आगमों का हिन्दी अनुवाद, भाष्य एवं टिप्पण का कार्य भी सम्पन्न हो चुका है। नियुक्ति-संपादन का इतिहास एकार्थक कोश का कार्य सम्पन्न हो चुका था। सन् १९८४ का चातुर्मासिक प्रवास जोधपुर था। उससे पूर्व गुरुदेव तुलसी एवं युवाचार्य श्री (आचार्य महाप्रज्ञ) का विराजना जैन विश्व भारती, लाडनूं में हुआ। अग्रिम कार्य की योजना में युवाचार्य प्रवर ने फरमाया— “नियुक्तियों पर अभी तक कोई काम नहीं हुआ है अत: अब इस कार्य को हाथ में लेना चाहिए।" नियुक्तियों के संपादन का कार्य मुझे सौंपा गया। हस्तप्रतियों से पाठ-संपादन के कार्य का अनुभव नहीं था अत: मन में सोचा कि यह कार्य तो बहुत सरल है क्योंकि प्रकाशित प्रतियों से शुद्ध पाठ उतारना है तथा कुछ परिशिष्ट तैयार करने हैं अत: दो तीन महीनों में यह कार्य सम्पन्न हो जाएगा। जोधपुर चातुर्मासिक प्रवास के दौरान चूर्णि और टीका में प्रकाशित सारी नियुक्तियों के क्रमांक आदि शुद्ध करके प्रतिलिपि कर आचार्य प्रवर एवं युवाचार्य श्री को फाइलें निवेदित की। फाइलें देखने के बाद आचार्य तुलसी ने फरमाया-अहमदाबाद में आवश्यक नियुक्ति पर कार्य हो रहा है, उसे देखने पर कार्य को एक दिशा मिल सकती है। गुरुदेव तुलसी का संकेत पाकर मैं और समणी सरलप्रज्ञाजी अहमदाबाद पहुंचे। वहां लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर में लगभग चार महीने तक काम करने का मौका मिला। पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने जब नियुक्तियों की फाइलें देखी तो सुझाव देते हुए कहा—'आगमों की प्रथम व्याख्या नियुक्ति है अत: यह बहुत महत्त्वपूर्ण साहित्य है। इसका हस्त-आदर्शों के माध्यम से पाठ-संपादन होना चाहिए।' उनकी प्रेरणा से वहीं पर हस्त-आदर्शों से पाठ-संपादन का कार्य प्रारम्भ कर दिया। लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर की लाइब्रेरी में हम लोग प्रात: आठ बजे से सांय ५ बजे तक कार्य करते। अहमदाबाद का चार महीने का प्रवास अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण रहा। लाडनूं आने के बाद मुनि श्री दुलहराजजी के निर्देशन में नियुक्तियों की गाथा-संख्या के बारे में पुन: एक बार पर्यालोचन किया गया। कितनी भाष्य-गाथाएं नियुक्ति गाथा में तथा नियुक्ति गाथाएं भाष्य-गाथाओं में मिल गयीं, इस संदर्भ में अनेक गाथाओं के बारे में पाद-टिप्पण लिखे तथा कितनी गाथाएं बाद में प्रक्षिप्त हुई इस बारे में भी विमर्श प्रस्तुत किया। ऐसी गाथाओं को मूल क्रमांक से अलग रखा। इस क्रम में टीका और चूर्णि में प्रकाशित नियुक्तियों एवं हमारे द्वारा संपादित नियुक्तियों की गाथा-संख्या में काफी अंतर आ गया। यद्यपि इन पांच नियुक्तियों के संपादन का कार्य सन् १९८५ में संपन्न हो गया था लेकिन बीच में देशी शब्द कोश, व्यवहारभाष्य आदि ग्रंथों के कार्य में संलग्न होने तथा पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के 'हित्य से मांधित कुछ ग्रंथों के संपादन एवं प्रकाशन में समय लाने से नियुक्तिपंचक के प्रकाशन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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