SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्युक्तिपंचक ३३५. द्रव्यचूडा के तीन प्रकार हैं- सचित्त, अचित्त और मिश्र । कुक्कुट चूडा सचित्त है । मणिचूडा अचित्त है । मयूरशिखा मिश्र है । क्षेत्रचूडा है - लोकनिष्कुट, मन्दरचूडा तथा कूट आदि ।' १०२ ३३६. अतिरिक्त अधिक मासों और अधिक संवत्सरों को कालचूडा कहते हैं । भावचूडा क्षायोपशमिक भाव है । इस प्रकार ये चूडाएं ज्ञातव्य हैं । ३३७. द्रव्यरति के दो प्रकार हैं-कर्मद्रव्यरति और नोकर्मद्रव्यरति । अनुदय प्राप्त रतिवेदनीय कर्मद्रव्यरति है और शब्द आदि द्रव्य नोकर्मद्रव्यरति है । ३३८. शब्द, रस, रूप, गंध और स्पर्श- ये रतिकारक द्रव्य हैं । यह द्रव्यरति है । कर्मों के उदय से होने वाली रति भावरति है । इसी प्रकार अरति को समझना चाहिए । ३३९. परीषहों के उदय से अरति उत्पन्न हो सकती है। मोक्षसुख की आकांक्षा से उसे सम्यक् रूप से सहन करना चाहिए । ३४०. वाक्य के विषय में पहले ( सप्तम अध्ययन में ) कहा जा चुका है । प्रस्तुत चूडा में धर्म में रति उत्पन्न करने वाले वाक्य हैं, इसलिए इसका नाम 'रतिवाक्या' है । ३४१, ३४२. जिस प्रकार रोगी के फोडे का सीवन छेदन किया जाना उसके लिए हितकर होता है तथा गलयंत्र आदि से अपथ्य का प्रतिषेध तथा आमदोषविरति करना उसके आरोग्य के लिए होता है वैसे ही आठ प्रकार के कर्मरोग से पीड़ित जीव की चिकित्सा के लिए धर्म में रति तथा अधर्म में अरति का होना गुणकारक है । ३४३. जो मुनि स्वाध्याय, संयम, तप, वैयावृत्त्य और ध्यानयोग में रमण करता है तथा असंयम में रमण नहीं करता, वह सिद्धि को प्राप्त होता है । ३४४. इसलिए धर्म में रतिकारक और अधर्म में अरतिकारक जो स्थान इस अध्ययन में निर्दिष्ट हैं, उनका सम्यग् अवबोध करना चाहिए । दूसरी चूलिका : विविक्तचर्या ३४५. दूसरी चूलिका - अध्ययन में पूर्वोक्त चार प्रकार का अधिकार है। शेष द्वारों का क्रमशः कथन किया जाएगा । ३४६. साधु की विहारचर्या के आधार पर साधु के दो भेद हैं- द्रव्यतः साधु - शरीरभव्य तथा भावतः साधु- संयत अर्थात् संयतगुण का संवेदक भावसाधु । प्रस्तुत अध्ययन में भावसाधु की अवगृहीता-अनियत तथा प्रगृहीता - अभिग्रहों से युक्त विहारचर्या का प्रतिपादन है । १. आदि शब्द से वृत्तिकार ने अधोलोक के सीमन्तक, तिर्यग्लोक के मन्दर पर्वत तथा ऊर्ध्वलोक के ईषत्प्राग्भारा का ग्रहण किया है । (हाटी प० २७० ) २. प्रथम चूलिका में द्रव्यचूडा, क्षेत्रचूडा, काल Jain Education International चूडा और भावचूडा का ग्रहण है (गाथा ३३४) । वृत्तिकार ने यहां नामचूडा, स्थापनाचूडा, द्रव्यचूडा और भावचूडा का ग्रहण किया है । (हाटी प० २७८ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy