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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५५१ उसने वैशेषिक सूत्रों की रचना की। उसका गोत्र षडूलक था अतः वह षडूलक नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। ४२. गोष्ठामाहिल और अबद्धिकवाद (वीरनिर्वाण के ५८४ वर्ष पश्चात्) देवेन्द्र वंद्य आर्यरक्षित विहरण करते हुए दशपुर नगर में पहुंचे। मथुरा में अक्रियवादी सक्रिय थे। लोग अक्रियवाद से भावित हो रहे थे। विशिष्ट व्यक्तियों ने संघ को एकत्रित किया पर वहां कोई वादी नहीं था। आर्यरक्षित युगप्रधान आचार्य हैं, ऐसा सोचकर उनको आमंत्रित करने साधुओं को भेजा गया। आरक्षित वहां आए, उन्हें सारी बात बताई गयी। वे वृद्ध थे अत: उन्होंने गोठामाहिल को वाद हेत भेजा क्योंकि वह वाकलब्धि सम्पन्न था। वह वहां गया और अक्रियवादी को पराजित कर दिया। श्रावकों के निवेदन करने पर गोष्ठामाहिल ने वहीं चातुर्मास किया। एक बार आचार्य आर्यरक्षित ने सोचा कि मेरे बाद गण को धारण करने वाला कौन होगा? क्योंकि जो जानते हुए अपात्र को अपना उत्तराधिकारी बना देता है, वह महापाप का भागी बनता है। उन्होंने दुर्बलिकापुष्यमित्र को इसके योग्य समझा। वहां आचार्य के अनेक स्वजन थे। वे गोष्ठामाहिल या फल्गुरक्षित को उत्तराधिकारी के रूप में योग्य मानते थे। आचार्य ने सबको बुलाकर दृष्टान्त देते हुए कहा-'तीन प्रकार के घट होते हैं-चने से भरा घट, तैल से भृत घट तथा घी से परिपूर्ण घट । चने के घडे को उल्टा करने पर सारे चने बाहर निकल जाते हैं। तैल के घडे से तैल भी बाहर निकल जाता है पर उसका कुछ अंश घड़े के लगा रह जाता है। घी के घड़े को उल्टा करने पर उसका बहुत अंश घड़े के ही लगा रह जाता है। दुर्बलिकापुष्यमित्र ने मुझे चने के घड़े के समान बना दिया है। उसने मुझसे सूत्र,अर्थ तथा उभय-सारा ग्रहण कर लिया है। फल्गुरक्षित द्वारा मैं तेल के घड़े के समान तथा गोष्ठामाहिल द्वारा मैं घृत घट के समान हुआ हूँ अत: दुर्बलिकापुष्यमित्र सूत्र और अर्थ से युक्त है। वह इस गण का आचार्य बने। आचार्य आर्यरक्षित के इस कथन को सभी ने एक स्वर से स्वीकार किया। आचार्य ने दुर्बलिकापुष्यमित्र से कहा-'मैंने जैसा व्यवहार फल्गुरक्षित तथा गोष्ठामाहिल के प्रति किया है वैसा व्यवहार तम्हें भी रखना है।' तदनन्तर सभी को संबोधित कर बोले-'शिष्यो! जैसा व्यवहार तुम सबने मेरे प्रति किया है, वैसा ही दुर्बलिकापुष्यमित्र के प्रति क्रोध नहीं किया किन्तु दुर्बलिकापुष्यमित्र किसी को क्षमा नहीं करेगा।' इस प्रकार दोनों पक्षों को शिक्षा प्रदान कर आचार्य भक्तप्रत्याख्यान से पंडित-मरण कर दिवंगत हो गए। उस समय गोष्ठामाहिल कहीं अन्यत्र विहरण कर रहा था। उसने सुना, आचार्य आर्यरक्षित दिवंगत हो गए हैं। वह वहां आया और पूछा कि आचार्य ने अपना उत्तराधिकारी किसे बनाया है? उसे तीन घडों का दष्टान्त कह सनाया। तब वह पथक उपाश्रय में उपधि आदि रखकर मुल उपाश्रय में आया। वहां स्थित मुनियों ने आदरभाव से कहा-'आप हमारे साथ यहीं रहें।' उसने वहां रहना स्वीकार नहीं किया। वह अलग उपाश्रय में ही रहा और अन्यान्य लोगों को बहकाने लगा। परन्तु १. उनि.१७२/६-९ उशांटी.प. १६८-७२, उसुटी. प. ७२, ७३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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