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नियुक्तिपंचक
कालान्तर में कुमार स्कन्दक पांच सौ व्यक्तियों के साथ मुनि सुव्रत तीर्थंकर के पास दीक्षित हुए। वे ज्ञानाभ्यास से बहुश्रुत हो गए। उनकी योग्यता का मूल्यांकन करके कुछ समय बाद मुनि सव्रत तीर्थंकर ने उन्हें पांच सौ शिष्यों का प्रमख बना दिया।
एक बार स्कन्दक ने भगवान् को निवेदन किया कि मैं अपनी संसारपक्षीया बहिन पुरंदरयशा को प्रतिबोध देने जाना चाहता हूँ। यह सुनकर तीर्थंकर सुव्रत ने कहा-'वत्स ! वहां मारणान्तिक कष्ट आ सकता है।' 'उपसर्ग में हम सब आराधक होंगे या विराधक?' यह पूछने पर भगवान् ने प्रत्युत्तर दिया- 'तुमको छोड़कर अन्य सभी साधु आराधक होंगे।' उसने कहा-'अच्छा है, इतने मुनि यदि आराधक होते हैं तो शुभ है।' भगवान् के मनाही करने पर भी आचार्य स्कन्दक अपने पांच सौ मुनियों के साथ कुंभकारकट नगर में पहुंचे। सभी मुनि नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरे।
पालक को जब स्कन्दक मुनि के आने का वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो उसने उद्यान में गुप्त रूप से शस्त्र छिपा दिए। दूसरे दिन पालक ने राजा के पास आकर उनको भ्रमित करने के लिए कहा-'स्कन्दक मुनि परीषहों से पराजित होकर यहां आया है। वह बहिन से मिलने के बहाने यहां आपको मारकर राज्य ग्रहण करना चाहता है। यदि मेरी बात पर विश्वास न हो तो आप उद्यान में जाकर देखें, वहां अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र छिपाए पड़े हैं।' राजा ने गुप्तचरों को उद्यान में भेजा। छिपे शस्त्रों की बात जानकर राजा का विश्वास स्थिर हो गया। राजा ने सभी मुनियों का निग्रह कर पालक पुरोहित को सौंप दिया। पालक ने एक-एक कर पांच सौ मुनियों को कोल्हू में पील दिया। सभी मुनियों ने समतापूर्वक उस वध परीषह को सहन किया। पूर्ण समाधिस्थ रहने से सबको कैवल्य उत्पन्न हुआ और सभी सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गए।
आचार्य स्कन्दक पास में खड़े थे। उन्होंने यह सारा दृश्य देखा। रुधिर से भरे कोल्हू यंत्र की ओर उनकी दृष्टि गई। उन्होंने कहा-'इस बाल मुनि को मैं यंत्र में पीलते हुए नहीं देख सकता अत: पहले मुझे पील दो।' पर उनके देखते-देखते छोटे शिष्य को यंत्र में पील दिया। यह दृश्य देखकर आचार्य स्कन्दक कुपित हो गए। उन्हें सबसे अंत में पीला गया। वे निदान कर अग्निकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुए।
उसी समय एक गृद्ध आचार्य स्कन्दक का रक्तलिप्त रजोहरण को पुरुष का हाथ समझकर उठाकर ले गया। साथ में पुरंदरयशा द्वारा दत्त कंबल भी था। वह रजोहरण पुरंदरयशा के सामने गिरा। रजोहरण और कंबल को देखते ही पुरंदरयशा ने पहचान लिया कि यह मेरे भाई का है। जब उसे ज्ञात हुआ कि मेरे भाई सहित सभी मुनियों को मरवा दिया है तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हो गयी। उसने राजा से कहा-'अरे पापिष्ट राजा ! तुमने आज विनाश का कार्य किया है। अब मैं स्वयं भी दीक्षा लेना चाहती हूं।' उसकी प्रबल भावना जानकर देवों ने उसे मुनि सुव्रत स्वामी के पास पहुंचा दिया। उधर अग्निकुमार देव ने अपने पूर्वभव का बदला लेने के लिए पूरे नगर को जलाकर भस्म कर डाला। आज भी वह क्षेत्र दण्डकारण्य कहलाता है। १. उनि.११२-१४, उशांटी.प. ११५, ११६, उसुटी.प. ३६, निभा.५७४०- ५७४३ चू.पृ. १२७, १२८ ।
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