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________________ दशवकालिक नियुक्ति ৬৩ ६४. किसी तत्त्व की सिद्धि के लिए तत्काल सव्यभिचारी हेतु दिया जाता है तथा स्वपक्ष और परपक्ष का प्रज्ञाबल जानकर उसे अभिव्यक्ति देते हुए दूसरे हेतुओं से उसी हेतु का समर्थन किया जाता है। ६५,६६. प्रत्युत्पन्नविनाश में गान्धविकों (संगीतकारों) का उदाहरण है। इसी प्रकार यदि शिष्य किसी भी महिला के प्रति आसक्त हो जाए तो गुरु ऐसा उपाय करे कि दोष का निवारण हो जाए। (यह लौकिक चरणानुयोग का उदाहरण है)। द्रव्यानुयोग के अनुसार यदि कोई वातूलिक नास्तिक कहे कि घट-पट आदि पदार्थों का अस्तित्व नहीं है, फिर जीव का अस्तित्व कैसे होगा? ६७. इस प्रश्न के समाधान में आचार्य कहते हैं-तुमने कहा 'पदार्थ नहीं हैं' तुम्हारा यह वचन सत् है या असत् ? यदि सत् है तो प्रतिज्ञाहानि (स्वीकृत पक्ष की असिद्धि) होती है और वचन असत् है तो भावों का निषेधक कौन होगा ? ६८. विवक्षापूर्वक बोला गया शब्द अजीव से उत्पन्न नहीं हो सकता और अजीव की विवक्षा नहीं हो सकती। अत: आत्मा का प्रतिषेध करने वाली शब्द ध्वनि 'आत्मा नहीं है' से ही जीवत्व की सिद्धि होती है। ६९ आहरणदेश के चार प्रकार हैं-अनुशिष्टि, उपालम्भ, पृच्छा और निश्रावचन । अनुशिष्टि के प्रसंग में सुभद्रा का उदाहरण है।' ७०. जैसे सुभद्रा नागरिकों द्वारा साधुकार (धन्यवाद) पुरस्सर सम्मानित हुई वैसे ही वैयावृत्य आदि में संलग्न मुनियों का भी आचार्य सद्गुण-कीर्तन से सम्मान करे । ७१. कुछ दार्शनिक आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करते हैं पर उसे अकर्ता मानते हैं । हम कहते हैं 'आत्मा है' यह सत्य है किंतु वह अकर्ता नहीं है। क्योंकि अकर्ता को सुख-दुःख का बोध नहीं होता । आत्मा सुख-दुःख का वेदन करती है, इसलिए वह कर्ता है। ७२. उपालम्भ द्वार की विवक्षा में मृगावती का उदाहरण है।' नास्तिकवादी को भी ऐसे ही कहना चाहिए कि 'आत्मा नहीं है'--.-आत्मा के अस्तित्व का निषेध करने वाला यह ज्ञान आत्मा के अभाव में संगत कैसे हो सकेगा ? ७३. आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए जो तर्क हैं और नास्तित्व विषयक जो कुविज्ञान है, वह जीव के अत्यन्त अभाव में संगत नहीं हो सकता। ७४,७५. पृच्छा के प्रसंग में कोणिक तथा निश्रावचन के प्रसंग में गौतम स्वामी का उदाहरण है । जीव के अस्तित्व को अस्वीकार करने व ले नास्तिकवादी से यह प्रश्न पूछा जाए–'आत्मा नहीं है' इस कथन के पीछे हेत क्या है? यदि परोक्ष प्रमाण को हेतु मानते हो तो यह तुम्हारा कुविज्ञान है क्योंकि परोक्ष तो परोक्ष ही है, वह 'आत्मा नहीं है' ऐसा निषेध कैसे कर सकता है ? ७६. किसी दूसरे हेत से नास्तिकवादी से यह कहना चाहिए कि जिन वादियों की मान्यता से आत्मा नहीं है उनके लिए दान, होम, यश आदि के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले स्वर्ग, मोक्ष आदि भी नहीं हैं। १. देखें-परि० ६, कथा सं० ८ । ४. देखें-परि० ६, कथा सं० ११ । २. देखें-परि० ६, कथा सं०९। ५. देखें-परि०६, कथा सं० १२ । ३. देखें-परि० ६, कथा सं० १० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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